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________________ श्रीमद राजचन्द्र १७ [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ४३] ॐ नमः सर्वज्ञ-वीतरागदेव (सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका सर्व प्रकारसे ज्ञाता, रागद्वेषादि सर्व विभावोंको जिसने क्षीण किया है वह ईश्वर है।) वह पद मनुष्यदेहमें संप्राप्त होने योग्य है। जो संपूर्ण वीतराग हो वह संपूर्ण सर्वज्ञ होता है। संपूर्ण वीतराग हुआ जा सकता है, ऐसे हेतु सुप्रतीत है। १८ [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ४५] प्रत्यक्ष निज अनुभवस्वरूप हूँ, इसमें संशय क्या ? उस अनुभवमें जो विशेष संबंधी न्यूनाधिकता होती है, वह यदि दूर हो जाये तो केवल अखंडाकार स्वानुभव स्थिति रहे। अप्रमत्त उपयोगसे वैसा हो सकता है। अप्रमत्त उपयोग होनेके हेतु सुप्रतीत हैं। उस तरह वर्तन किया जा सकता है, वह प्रत्यक्ष सुप्रतीत है। अविच्छिन्न वैसी धारा रहे तो अद्भत अनंत ज्ञानस्वरूप अनुभव सुस्पष्ट समवस्थित रहे [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ४७] सर्व चारित्र वशीभूत करनेके लिये, सर्व प्रमाद दूर करनेके लिये, आत्मामें अखंड वृत्ति रहनेके लिये, मोक्षसंबंधी सर्व प्रकारके साधनोंकी जय करनेके लिये 'ब्रह्मचर्य' अद्भुत अनुपम सहायकारी है, अथवा मूलभूत है। - [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ४९] ॐ नमः संयम २१ [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५०] जागृत सत्ता। ज्ञायक सत्ता। आत्मस्वरूप । २२ [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५२] सर्वज्ञोपदिष्ट आत्माको सद्गुरुकी कृपासे जानकर निरंतर उसके ध्यानके लिये विचरना, संयम और तपपूर्वक २३ [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५२] अहो ! सर्वोत्कृष्ट शांत रसमय सन्मार्गअहो ! उस सर्वोत्कृष्ट शांत रसप्रधान मार्गके मूल सर्वज्ञदेव
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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