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________________ ४७ आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी ३ अहो ! उस सर्वोत्कृष्ट शांत रसको जिन्होंने सुप्रतीत कराया ऐसे परमकृपालु सद्गुरुदेवइस विश्वमें सर्वकाल आप जयवंत रहें, जयवंत रहें। . .२४ . . [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५४] ॐनमः विश्व अनादि है। आकाश सर्वव्यापक है। उसमें लोक स्थित है। जड-चेतनात्मक लोक संपूर्ण भरपूर हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये जड द्रव्य हैं। . जीव द्रव्य चेतन है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चार अमूर्त द्रव्य हैं। वस्तुतः काल औपचारिक द्रव्य है। धर्म, अधर्म, आकाश एक एक द्रव्य हैं। काल, पुद्गल और जीव अनंत द्रव्य हैं। [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५५ ] द्रव्य गुणपर्यायात्मक है। २५ [ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५७] परम गुणमय चारित्र (बलवान असंगादि स्वभाव) चाहिये। परम निर्दोष श्रुत। परम प्रतीति । परम पराक्रम । परम इंद्रियजय। १. मूलका विशेषत्व। २. मार्गके आरंभसे अंतपयंतकी अद्भुत संकलना। ३. निर्विवाद४. मुनिधर्मप्रकाश। ५. गृहस्थधर्मप्रकाश। ६. निग्रंथ परिभाषानिधि७. श्रुतसमुद्र प्रवेशमार्ग। २६ [संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ ५८ ] स्वपर-उपकारका महान कार्य अब कर ले ! त्वरासे कर ले ! अप्रमत्त हो- अप्रमत्त हो। क्या कालका क्षणवारका भी भरोसा आयं पुरुषोंने किया है ? हे प्रमाद ! अब तू जा, जा। हे ब्रह्मचर्य ! अब तू प्रसन्न हो, प्रसन्न हो।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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