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________________ माभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी ३ . : परमाणु अनंत हैं। जीव और पुद्गलका संयोग अनादि है। जब तक जीवको पुद्गल-सम्बन्ध है, तब तक सकर्म जीव कहा जाता है । भावकर्मका कर्ता जीव है। भावकर्मका दसरा नाम विभाव कहा जाता है। भावकर्मके हेतुसे जीव पुद्गलको ग्रहण करता है। ..... उससे तैजस आदि शरीर और औदारिक आदि शरीरका योग होता है। [ संस्मरण-पोथी ३, पृष्ठ १७ ] ‘भावकर्मसे विमुख हो तो निजभाव परिणामी हो। . सम्यग्दर्शनके बिना वस्तुतः जीव भावकमसे विमुख नहीं हो सकता। .... सम्यग्दर्शन होनेका मुख्य हेतु जिनवचनसे तत्त्वार्थ प्रतीति होना है। .७:::: संस्मरण-पोथी ३, १ष्ठ १९] मैं केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप सहज निज अनुभवस्वरूप' हूँ। व्यवहार दृष्टिसे मात्र इस वचनका वक्ता हूँ। परमार्थसे तो मात्र उस वचनसे व्यंजित मूल अर्थरूप हूँ। .. आपसे जगत भिन्न है, अभिन्न है, भिन्नाभिन्न है ? भिन्न, अभिन्न, भिन्नाभिन्नं, ऐसा अवकाश स्वरूपमें नहीं है। व्यवहारदृष्टिसे उसका निरूपण करते हैं.। . -जगत मेरेमें भासमान होनेसें अभिन्न है, परन्तु जगत जगतस्वरूपसे है, मैं स्वस्वरूपसे हूँ, इसलिये जगत मुझसे सर्वथा भिन्न है। इन दोनों दृष्टियोंसे जगत. मुझसे भिन्नाभिन्न है। १. ॐ शुद्ध निर्विकल्प-चैतन्य | .: [ संस्मरण-पोथो ३, पृष्ठ २३ ] . .. ॐ नमः . केवलज्ञान। एक ज्ञान। सर्व अन्य भावोंके संसर्गसे रहित एकांत शुद्धज्ञान। सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका सर्व प्रकारसे एक समयमें ज्ञान । उस केवलज्ञानका हम ध्यान करते हैं। .. . .... . निजस्वभावरूप है। स्वतत्त्वभूत है। निरावरण है। अभेद है। निर्विकल्प है। सर्व भावोंका उत्कृष्ट प्रकाशक है। :...::
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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