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________________ . . .. श्रीमद् राजचन्द्र . . . . . , अधर्मास्तिकाय एक है। . आकाशास्तिकाय एक है। काल द्रव्य है। विश्वप्रमाण क्षेत्रावगाह कर सके ऐसा एक-एक जीव है। [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ १३] नमो जिणाणं जिदभवाणं जिसकी प्रत्यक्ष दशा ही बोधरूप है, उस महापुरुषको धन्य है। जिस मतभेदसे यह जीव ग्रस्त है, वही मतभेद ही उसके स्वरूपका मुख्य आवरण है। वीतराग पुरुषके समागमके बिना, उपासनाके विना, इस जीवको मुमुक्षता कैसे उत्पन्न हो ? सम्यग्ज्ञान कहाँसे हो ? सम्यग्दर्शन कहाँसे हो ? सम्यक्चारित्र कहाँसे हो? क्योंकि ये तीनों वस्तुएँ अन्य स्थानमें नहीं होती। वीतरागपुरुषके अभाव जैसा वर्तमानकाल है। हे मुमुक्षु ! वीतरागपद वारंवार विचार करने योग्य है, उपासना करने योग्य है, ध्यान करने योग्य है। [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ १५ ] जीवके बंधनके मुख्य हेतु दो राग और द्वेष रागके अभावसे द्वेषका अभाव होता है। रागकी मुख्यता है। रागके कारण ही संयोगमें आत्मा तन्मयवृत्तिमान है। . वही कर्म मुख्यरूपसे है। ज्यों ज्यों रागद्वेष मंद, त्यों त्यों मंबंध मंद और ज्यों ज्यों रागद्वेष तीव्र, त्यों त्यों कर्मबंध तीव्र। जहाँ रागद्वेषका अभाव वहाँ कर्मबंधका सांपरायिक अभाव । .. रागद्वेष होनेके मुख्य कारणमिथ्यात्व अर्थात् । असम्यग्दर्शन है। सम्यग्ज्ञानसे सम्यग्दर्शन होता है। उससे असम्यग्दर्शनकी निवृत्ति होती है। उस जीवको सम्यक्चारित्र प्रगट होता है, .......... .... जो वीतरागदशा है। .. . . संपूर्ण वीतरागदशा जिसे रहती है उसे चरमशरीरी जानते हैं । ...... . [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ १७] हे जीव ! स्थिर दृष्टिसे तू अंतरंगमें देख, तो सर्व परद्रव्यसे मुक्त ऐसा तेरा स्वरूप तुझे परम प्रसिद्ध अनुभवमें आयेगा।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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