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________________ आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी २ ८३३ ८७ .... :: . . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १८७] अकिंचनतासे विचरते हुए एकांत मौनसे जिनसदृश ध्यानसे तन्मयात्मस्वरूप ऐसा कब होऊँगा? ..: :., . ८८.... ..... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १९५] एक बार विक्षेप शांत हुए बिना अति समीप आ सकने योग्य अपूर्व संयम प्रगट नहीं होगा। . कैसे, कहाँ स्थिति करें? ......... संस्मरणपोथी-२........... ....... ... ... .. ... . .. संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ३] . राग, द्वेष और अज्ञानका आत्यंतिक अभाव करके जिस सहज शुद्ध आत्मस्वरूपमें स्थित हुए वह स्वरूप हमारे स्मरण, ध्यान और पाने योग्य स्थान है। २. ... ... ... [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ५ ] ज्ञिपदका ध्यान करें। [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ७] शुद्ध चैतन्य अनंत आत्मद्रव्य केवलज्ञान स्वरूप शक्तिरूपसे : ... . वह जिसे संपूर्ण व्यक्त हुआ है, तथा व्यक्त होनेका । जिन पुरुषोंने मार्ग पाया है उन पुरुषोंको - अत्यन्त भकिसे नमस्कार .: [ संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ ९] ... . , . . . . . . . ४ . . नमो जिणाणं जिदभवाणं जिनतत्त्वसंक्षेप अनंत अवकाश है। उसमें जड-चेतनात्मक विश्व रहा है। विश्वमर्यादा दो अमूर्त द्रव्योंसे है, जिनकी संज्ञा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय है। जीव और परमाणु पुद्गल ये दो द्रव्य सक्रिय हैं। सर्व द्रव्य द्रव्यत्वसे शाश्वत हैं। अनंत जीव हैं। . अनंत अनंत परमाणु पुद्गल हैं। धर्मास्तिकाय एक है। . .
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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