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________________ गाभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी २ ८३५ ., हे जीव ! असम्यग्दर्शनके कारण वह स्वरूप तुझे भासित नहीं होता। उस स्वरूपमें तुझे शंका है, व्यामोह और भय है। सम्यग्दर्शनका योग प्राप्त करनेसे उस अभासन आदिकी निवृत्ति होगी। हे सम्यग्दर्शनी ! सम्यक्चारित्र ही सम्यग्दर्शनका फल घटित होता है, इसलिये उसमें अप्रमत्त हो। जो प्रमत्तभाव उत्पन्न करता है वह तुझे कर्मबंधकी सुप्रतीतिका हेतु है।' ...... हे सम्यक्चारित्री ! अब शिथिलता योग्य नहीं। बहुत अंतराय था, वह निवृत्त हुआ तो अब निरंतराय पदमें शिथिलता किसलिये करता है ? [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ २१ ] दुःखका अभाव करना सब जीव चाहते हैं। दुःखका आत्यंतिक अभाव कैसे हो ? वह ज्ञात न होनेसे जिससे दुःख उत्पन्न हो उस मार्गको दुःखसे छूटनेका उपाय जीव समझता है । जन्म, जरा, मरण मुख्यरूपसे दुःख हैं । उसका बीज कर्म है । कर्मका बीज रागद्वेष है, अथवा इस प्रकार पाँच कारण हैं मिथ्यात्व . . . - अविरति प्रमाद कषाय योग : :: पहले कारणका अभाव होनेपर दूसरेका अभाव, फिर तीसरेका, फिर चौथेका, और अंतमें पाँचवें कारणका यों अभाव होनेका क्रम है। .: . . . मिथ्यात्व मुख्य मोह है। . .:: . . . . . .. . अविरति गौण मोह है। .. . प्रमाद और कषायका अविरतिमें अंतर्भाव हो सकता है। योग सहचारीरूपसे उत्पन्न होता है। ___ चारों नष्ट हो जानेके बाद भी पूर्व-हेतुसे योग हो सकता है। ... [संस्मरण-पोथी २, पृष्ठ २५] हे मुनियो ! जब तक केवल समवस्थानरूप सहज स्थिति स्वाभाविक न हो तब तक आप ध्यान और स्वाध्यायमें लीन रहें। जीव केवल स्वाभाविक स्थितिमें स्थित हो वहाँ कुछ करना बाकी नहीं रहा। . .. जहाँ जीवके परिणाम वर्धमान, हीयमान हुआ करते हैं वहां ध्यान कर्तव्य है। अर्थात् ध्यानलीनतासे सर्व बाह्य द्रव्यके परिचयसे विराम पाकर निजस्वरूपके लक्ष्य में रहना उचित है। उदयके धक्केसे वह ध्यान जब जब छूट जाये तब तब उसका अनुसंधान बहुत त्वरासे करना।। बीचके अवकाशमें स्वाध्यायमें लीनता करना। सर्व पर-द्रव्यमें एक समय भी उपयोग संग प्राप्त न करे ऐसी दशाका जीव सेवन करे तब केवलज्ञान उत्पन्न होता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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