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________________ १७ वर्षसे पहले अशरण अनुप्रेक्षा २१ अ अशरण अनुप्रेक्षाका चिन्तन करते हैं इस ससारमे कोई देव, दानव, इन्द्र, मनुष्य ऐसा नही है कि जिसपर यमराजकी फाँसी न पडी हो । मृत्युके वश होने पर कोई आश्रय नही है । आयु पूर्ण हो जानेके समय इन्द्रका पतन क्षण मात्रमे हो जाता है। जिसके असख्यात देव आज्ञाकारी सेवक हैं, जो सहस्रो ऋद्धियोवाला है, जिसका स्वर्ग मे असख्यात कालसे निवास है, जिसका शरीर रोग, क्षुधा, तृषादि उपद्रवोसे रहित है, जो असख्यात बलपराक्रमका धारक है, ऐसे इन्द्रका पतन हो जाये वहाँ भी अन्य कोई शरण नही है । जैसे उजाड वनमे शेरसे पकडे हुए हिरनके बच्चेकी रक्षा करनेके लिये कोई समर्थ नही है, वैसे मृत्युसे प्राणीकी रक्षा करनेके लिये कोई समर्थ नही है | इस ससारमे पहले अनन्तानन्त पुरुष प्रलयको प्राप्त हुए है । कोई शरण है ? कोई ऐसा औषध, मत्र, यत्र अथवा देवदानव आदि नही हैं कि जो एक क्षण मात्र भी कालसे रक्षा करे । यदि कोई देव, देवी, वैद्य, मत्र तत्र आदि एक मनुष्यकी मरणसे रक्षा कर पाते तो मनुष्य अक्षय हो जाता । इसलिये मिथ्या बुद्धिको छोडकर अशरण अनुप्रेक्षाका चिन्तन करें। मूढ मनुष्य ऐसा विचार करता है कि मेरे सगेका हितकारी इलाज नही हुआ. औषधि न दी, देवताकी शरण नही ली, उपाय किये बिना मर गया, इस प्रकार अपने स्वजनका शोक करता है । परन्तु अपनी चिन्ता नही करता कि मै यमकी दाढोके बीच बैठा हूँ | जिस कालको करोडो उपायोसे भी इन्द्र जैसे भी न रोक सके, उसे बेचारा मनुष्य भला क्या रोकेगा ? जैसे हम दूसरेका मरण होते हुए देखते है वैसे हमारा भी अवश्य होगा । जैसे दूसरे जीवोका स्त्री, पुत्रादिसे वियोग होता देखते हैं, वैसे, हमारे लिये भी वियोगमे कोई शरण नही है | अशुभ कर्मकी उदीरणा होने पर बुद्धिनाश होता है, प्रबल कर्मोदय होने पर एक भी उपाय काम नही आता । अमृत विषमे परिणमित हो जाता है, तृण भी शस्त्रमे परिणत हो जाता है, अपना प्रिय मित्र भी शत्रु हो जाता है, अशुभ कर्मके प्रबल उदयसे बुद्धि विपरीत होकर स्वयं अपना ही घात करता है। जब शुभ कर्मका उदय होता है, तब मूर्खको भी प्रबल बुद्धि उत्पन्न होती है । किये बिना अनेक सुखकारी उपाय अपने आप प्रगट होते है । शत्रु मित्र हो जाता है, विष भी अमृतमे परिणत हो जाता है । जव पुण्यका उदय होता है तब समस्त उपद्रवकारी वस्तुएँ नाना प्रकारके सुख देनेवाली हो जाती हैं । यह पुण्यकर्मका प्रभाव है | 1 पापके उदयसे हाथमे आया हुआ धन क्षण मात्रमे नष्ट हो जाता है । पुण्यके उदयसे बहुत ही दूरकी वस्तु भी प्राप्त हो जाती है । जब लाभातरायका क्षयोपशम होता है तव यत्नके बिना निधिरत्न प्रगट होता है । जब पापोदय होता है तब सुन्दर आचरण करनेवालेको भी दोष एव कलक लग जाते हैं, अपवाद तथा अपयश होते है । यश नाम कर्मके उदयसे समस्त अपवाद दूर होकर दोप गुणमे परिणत हो जाते है । यह ससार पुण्यपापके उदयरूप है । परमार्थसे दोनो उदयो (पुण्यपाप) को परकृत और आत्मासे भिन्न जानकर उनके ज्ञाता अथवा साक्षी मात्र रहे, हर्ष एव खेद न करे । पूर्वमे बाँधे हुए कर्म अब उदयमे आये हैं। अपने किये हुए कर्म दूर नही होते । उदयमे आनेके बाद उपाय नही है । कर्मके फल जो जन्म, जरा, मरण, रोग, चिंता, भय, वेदना, दुःख आदि है, उनके आने पर मत्र, तत्र, देव, दानव, आपध आदि कोई उनसे रक्षा करनेके लिये समर्थ नही है। कर्मका उदय आकाश, पाताल अथवा कही भी नही छोड़ता । औपचादि बाह्य निमित्त, अशुभ कर्मका उदय मन्द होने पर उपकार करते हैं ! दुष्ट, चोर, भील, वैरी तथा सिंह, वाघ, सर्प आदि गाँवमे या वनमे मारते है, जलचरादि जोव पानीमे मारते है, परन्तु अशुभ कर्मका उदय तो जल मे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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