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________________ श्रीमद राजचन्द्र गुरमे, पडितमे, मूर्खम, रूपवानमे, कुरूपमे, पराक्रमीमे, कायरमे, धर्मात्मामे, अधर्मीमे, पापीमे, दानीमे, कृपणमे-कही भी नही रमती। यह तो पूर्व जन्ममे जिसने पुण्य किया हो उसकी दासी है। कुपात्र दानादि एव कुतप करके उत्पन्न हुए जीवको, बुरे भोगमे, कुमार्गमे, मदमे लगाकर दुर्गतिमे पहुँचानेवाली है। इस पचमकालमे तो कुपात्र दान करके, कुतपस्या करके लक्ष्मी पैदा होती है। यह वुद्धिको बिगाड़ती है, महादु खसे उत्पन्न होती है, महादु खसे भोगी जाती है। पापमे लगाती है। दानभोगमे खर्च किये विना मरण होने पर, आर्तध्यानसे लक्ष्मीको छोड़कर जीव तिर्यच गतिमे उत्पन्न होता है। इसलिये लक्ष्मीको तृष्णा बढानेवाली और मद उत्पन्न करनेवाली जानकर दुखित और दरिद्रीके उपकारमे, धर्मवर्धक धर्मस्थानोमे, विद्यादानमे, वीतराग-सिद्धान्तके लिखवानेमे लगाकर सफल करें। न्यायके प्रामाणिक भोगमे, जैसे धर्म न बिगडे वैसे लगायें । यह लक्ष्मी जलतरगवत् अस्थिर है । अवसर पर दान एव उपकार कर लें। यह परलोकमे साथ नही आयेगी। इसे अचानक छोडकर मरना पड़ेगा। जो निरतर लक्ष्मीका सचय करते है, दान-भोगमे इसका उपयोग नही कर सकते, वे अपने आपको ठगते हैं। पापका आरंभ करके, लक्ष्मीका सग्रह करके, महामूर्छासे जिसका उपार्जन किया है, उसे दूसरेके हाथमे देकर, अन्य देशोमे व्यापारादिसे बढानेके लिये उसे स्थापित करके, जमीनमे अति दूर गाडकर, और दिनरात उसीका चिंतन करते-करते दुानसे मरकर दुर्गतिमे जा पहुंचते है। कृपणको लक्ष्मीका रखवाला और दास समझना । दूर जमीनमे गाड़कर लक्ष्मीको पत्थर-सा कर दिया है। जैसे जमीनमे दूसरे पत्थर पड़े रहते हैं, वैसे लक्ष्मीको समझें । राजाके, उत्तराधिकारीके तथा कूटबके कार्य सिद्ध किये, परतु अपनी देह तो भस्म होकर उड जायेगी, इसे प्रत्यक्ष नही देखते ? इस लक्ष्मीके समान आत्माको ठगनेवाला दूसरा कोई नहीं है। जीव अपने समस्त परमार्थको भूलकर लक्ष्मीके लोभका मारा रात और दिन घोर आरभ करता है। समय पर भोजन नही करता। सर्दी-गर्मीकी वेदना सहन करता है। रागादिकके दुखको नही जानता। चिंतातुर होकर रातको नीद नही लेता । लक्ष्मीका लोभी यह नही समझता कि मेरा मरण हो जायेगा। वह सनामके घोर सकटमे चला जाता है। समुद्रमे प्रवेश करता है । घोर भयानक वीरान पर्वत पर जाता है । धर्मरहित देशमे जाता है, जहाँ अपनी जाति, कुल या घरका कोई व्यक्ति देखनेमे नही आता । ऐसे स्थानमे केवल लक्ष्मीके लोभसे भ्रमण करता-करता मरकर दुर्गतिमे जा पहुंचता है। लोभी नही करने योग्य और नीच भीलके करने योग्य काम करता है। अत तू अब जिनेंद्रके धर्मको पाकर संतोष धारण वार । अपने पुण्यके अनुरूप न्यायमार्गको प्राप्त होकर, धनका संतोषी होकर, तीन राग छोड़कर, न्यायके विपय भोगोमे और दुखित, बुभुक्षित, दीन एव अनाथके उपकारके लिये दान एव सन्मानमे लक्ष्मीको लगा । इस लक्ष्मीने अनेकोको ठग कर दुर्गतिमे पहुँचाया है। लक्ष्मीका सग करके जगतके जीव अचेत हो रहे है । पुण्यके अस्त होते ही यह भी अस्त हो जायेगी । लक्ष्मीका सग्रह करके मर जाना ऐसा लक्ष्मीका फल नही है । इसके फल हैं केवल उपकार करना और धर्मका मार्ग चलाना। जो इस पापरूप लक्ष्मीको ग्रहण नही करते वे धन्य है। और जिन्होने इसे ग्रहण करके इसकी ममता छोड़कर क्षण मात्रमे इसका त्याग कर दिया है वे धन्य हैं। विशेष क्या लिखे ? इस धन, यौवन, जीवन, कुटुम्बके सगको पानीके बुलबुलेके समान अनित्य जानकर आत्महितरूप कार्यमे प्रवृत्ति करें । ससारके जितने-जितने सम्बन्ध हैं उतने-उतने सभी विनाशी हैं। इस प्रकार अनित्य भावनाका विचार करें। पुत्र, पौत्र, स्त्री, कुटुम्ब आदि कोई परलोकमे न तो साय गया हे और न जायेगा । अपने उपार्जित किये हुए पुण्यपापादि कर्म साथ आयेंगे। यह जाति, कुल, रूप आदि तथा नगर आदिका सवध देहके साथ ही नष्ट हो जायेगा। इस अनित्य अनुप्रेक्षाका क्षण मात्र भी विस्मरण न हो, जिससे परका ममत्व छूट कर आत्मकार्यमे प्रवृत्ति हो ऐसी अनित्य भावनाका वर्णन किया ॥१॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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