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________________ २२ श्रीमद राजचन्द्र स्थलमे, वन में, समुद्रमे, पर्वतमं, गढमे, घरमै शय्यामे, कुटुम्बमे, राजादि सामन्तोके वीचमे शस्त्रोंसे रक्षा करते हुए भी कहीं भी नहीं छोड़ता । इस लोकमे ऐसे स्थान है कि जहाँ सूर्य व चन्द्रका प्रकाश, पवन तथा वैकिकाले नहीं जा सकते, परन्तु कर्मका उदय तो सर्वत्र जाता है । प्रबल कर्मका उदय होने पर विद्या, मत्र, बल, औषधि, पराक्रम, प्रिय मित्र, सामन्त, हाथी, घोडे, रथ, पैदल सेना, गढ, कोट, शस्त्र, साम दाम दंड भेद आदि सभी उपाय शरणरूप नही होते । जैसे उदित होते हुए सूर्यको कौन रोक सकता है ? बैंस कर्मके उदयको नही रोका जा सकता, ऐसा समझकर समताभावकी शरण ग्रहण करें, तो अशुभ कर्मकी निर्जरा होती है और नया बंध नहीं होता। रोग, वियोग, दारिद्र्य, मरण आदिका भय छोडकर परम धैर्य ग्रहण करें, अपना वीतराग भाव, सतोषभाव, और परम समताभाव ही शरण है, अन्य कोई कारण नही है । इस जीवके उत्तम क्षमादि भाव स्वयमेव शरणरूप है । कोचादि भाव इस लोक एव परलोकमे इस जीवके घातक हैं। इस जीवके लिये कषायकी मदता इस लोक मे हजारो विघ्नोका नाश करनेवाली परम शरणरूप है, और परलोकमे नरक व तियंच गतिसे रक्षा करती है । मन्दकपायी जीव देवलाक तथा उत्तम मनुष्यजातिमे उत्पन्न होता है । यदि पूर्वकर्म के उदय के समय आर्न एव रौद्र परिणाम करेंगे तो उदीरणाको प्राप्त हुए कर्मो को रोकनेमे कोई समर्थ नहीं है | केवल दुर्गतिके कारण नवीन कर्म और वढेगे । कर्मोदयके लिये अपेक्षित वाह्य निमित्त - क्षेत्र, काल और भावके मिलनेके बाद उस कर्मोदयको इन्द्र, जिनेन्द्र, मणि, मत्र, औषध आदि कोई भी रोकने मे समर्थ नही है । रोगके इलाज तो औपचादि जगतमे हम देखते है, परन्तु प्रवल कर्मोदयको रोकनेके लिये औप आदि समर्थ नही है, प्रत्युत वे विपरीतरूपसे परिणत होते है । इस जीवको जब असातावेदनीय कर्मका उदय तीव्र होता है तब औषध आदि विपरीत रूपसे परिणत होते है | असाताका मद उदय हो अथवा उपशम हो तब औषध आदि उपकार करते हैं। क्योकि मन्द उदयको रोकनेमे समर्थ तो अल्प शक्तिवाले भी होते हैं । प्रबल शक्तिवालेको रोकनेमे अल्प शक्तिवाला नमर्थ नही है । इस पंचम कालमे अल्प मात्र वाह्य द्रव्य, क्षेत्रादि सामग्री है, अल्प मात्र ज्ञानादि, हे, अल्प मात्र पुरुषार्थ है । और अशुभका उदय आनेसे वाह्य सामग्री प्रवल है, तो वह अल्प सामग्री अल्प पुरुषार्थसे प्रबल असाताके उदयको कैसे जीत सकती है ? बड़ी नदियोका प्रवाह प्रवल तरगोको उछालता हुआ चला आता हो तो उसमे तैरनेकी कलामे समर्थ पुरुष भी तैर नही सकता । जव नदीके प्रवाहका मन्द होता जाता हे तव तैरनेकी विद्याका जानकार तैर कर पार हो जाता है, उसी प्रकार प्रबल कर्मोदयमे अपनेको अशरण जाने । पृथ्वी और समुद्र दोनो विशाल है, परन्तु पृथ्वीका छोर पानेके लिये ओर समुद्रको तेरनेके लिये बहुतसे समर्थ देखे जाते हैं, परन्तु कर्मोदयको तैरनेके लिये समर्थ दिखायी नही देते | इन ससारमे सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र तथा सम्यक् तप-सयम शरण है । इन चार आराधनाओंके बिना और कोई शरण नही है । तथा उत्तम क्षमादि दश धर्म इस लोकमे समस्त क्लेश, दुल, मरण, अपमान और हानिसे प्रत्यक्ष रक्षा करनेवाले हे । मद कषायके फल स्वाधीन सुख, जात्मरक्षा, उज्ज्वल यश क्लेशाभाव तथा उच्चता इस लोकमे प्रत्यक्ष देखकर उसकी शरण ग्रहण करें । परलोकमे उसका फल स्वर्गलोक हे ! विशेषत व्यवहारमे चार शरण है- अर्हत, सिद्ध, साधु और केवल ज्ञानी द्वारा प्ररूपित वर्म । इन्हीको गरण जाने। इस प्रकार यहाँ इनकी शरणके विना आत्माकी उज्ज्वलता प्राप्त नही होती, ऐमा वतानवाली अशरण अनुप्रेक्षाका विचार किया ||२|| ससार अनुप्रेक्षा जब नमार अनुप्रेक्षां स्वरूपका विचार करते है नानादि कालके मिथ्यात्वके उदयसे अचेत हुआ जीव, जिनेन्द्र सर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्रति सत्यार्थ धर्मको प्राप्त न होकर चारो गतियोंमे भ्रमण करता है । ससारमे कर्मरूप दृढ बन्धनसे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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