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________________ ८२६ ..... श्रीमद् राजवना ... :::: ..............: - :...... ६४ . . . . . . . . . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १३३] 'सिद्ध आत्मा लोकालोकप्रकाशक है, परन्तु लोकालोकव्यापक नहीं है, व्यापक तो स्वावगाहनाप्रमाण है । जिस मनुष्य-देहसे सिद्धिको प्राप्त की उसका तीसरा भाग कम वह प्रदेश घन है। अर्थात् आत्मद्रव्य लोकालोकव्यापक नहीं परन्तु लोकालोकप्रकाशक अर्थात् लोकालोकज्ञायक है। आत्मा. लोकालोकमें नहीं जाता, और लोकालोक कुछ : आत्मामें नहीं आता, सब अपनी-अपनी अवगाहनामें स्वसत्ताम स्थित हैं, फिर भी आत्माको उसका ज्ञातदर्शन किस तरह होता है ? . ... .. ..... यहाँ यदि यह दृष्टांत दिया जाये कि जैसे दर्पणमें, वस्तु प्रतिबिंबित होती है वैसे ही आत्मामें भी लोकालोक प्रकाशित होता है, प्रतिनिवित होता है, तो यह समाधान भी. अविरोधी' दिखायी नहीं देता, क्योंकि दर्पणमें तो विस्रसापरिणामी पुद्गलरश्मिसे वस्तु प्रतिबिंबित होती है। ......" ". आत्माका अगुरुलघु धर्म है, उस धर्मको देखते हुए आत्मा सब पदार्थोंको जानता है; क्योंकि सब द्रव्योंमें अगुरुलघु गुण समान है, ऐसा कहा जाता है, वहाँ अगुरुलघुधर्मका अर्थ क्या समझना ? ....." [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १३६] आहारकी जय, . . . . . - आसनकी जय," . . . . . . . निद्राकी.जय, . .. .. . वाक्सयम, ..... ....... .. ..... जिनोपदिष्ट आत्मध्यान। .. जिनोपदिष्ट आत्मध्यान किस तरह? .. ........ .............." ज्ञानप्रमाण ध्यान हो सकता है, इसलिये ज्ञान-तारतम्यता चाहिये। .... ...... ... क्या विचार करनेसे, क्या माननेसे, क्या दशा होनेसे चौथा गुणस्थानक कहा जाये ? .... ... किससे चौथे. गुणस्थानकसे तेरहवें गुणस्थानकमें आये ?. ..... . .. . ......[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १४८] वर्तमानकालकी तरह यह जगत सर्वकाल है। वह पूर्वकालमें न हो तो वर्तमानकालमें उसका अस्तित्व भी नहीं हो सकता। .. :: वह वर्तमानकालमें है. तो भविष्यकालमें वह अत्यंत विनष्ट नहीं हो सकता। :: :: :: ... ... पदार्थ मात्र परिणामी होनेसे यह जगत पर्यायांतर दिखायी देता है; : परन्तु मूलरूपसे इसकी सदा .:.... . ...... . . . . . . . . .. ६७ ... [ संस्मरण-पोयी १, पृष्ठ १५०] .. जो वस्तु समयमात्रके लिये है, वह सर्वकालके लिये है। " जो भाव है वह है, जो नहीं है वह नहीं है । - दो प्रकारका पदार्थस्वभाव विभागपूर्वक स्पष्ट दिखायी देता है-जडस्वभाव और चेतन-स्वभाव । ... ६८ :: [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १५२ ] गुणातिशयता क्या है ? : : ... ............ .. . ..... . विव उसका आज केवलज्ञानमें अतिशयता क्या है ?
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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