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________________ आभ्यंतर परिणाम अवलोकन - संस्मरणपोयी १ ८२५ सहज में निर्विकल्प समाधिके कारणभूत वेदांत आदि मार्गकी, उसकी अपेक्षा अवश्य विशेष प्रमाणद्धता संभव है। उत्तर - एक बार जैसे आप कहते हैं वैसे यदि मान भी लें, परंतु सर्वं दर्शनकी शिक्षाको अपेक्षा ननेंद्रकथित बंध-मोक्षके. स्वरूपकी शिक्षा जितनी अविकल प्रतिभासित होती है उतनी दूसरे दर्शनोंकी प्रतिभासित नहीं होती । और जो अविकल शिक्षा है वही प्रमाणसिद्ध है । शंका- यदि आप ऐसा मानते हैं तो किसी तरह निर्णयका समय नहीं आ सकता; क्योंकि सब दर्शनोंमें, जिस जिस दर्शनमें जिसकी स्थिति है उस उस दर्शनके लिये वह अविकलता मानता है । उत्तर- यदि ऐसा हो तो उससे अविकलता सिद्ध नहीं होती, जिसकी प्रमाणसे अविकलता हो वही विकल सिद्ध होता है । 1. प्रश्न- जिस प्रमाण से आप जिनेंद्रकी शिक्षाको अविकल मानते हैं उसे आप कहें, और जिस तरह दांत आदिको विकलता आपको संभावित लगती है, उसे भी कहें । ६२ [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १३०] अनेक प्रकारके दुःख तथा दुःखी प्राणी प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं, तथा जगतकी विचित्र रचना देखनेमें आती है, यह सब होने का क्या हेतु है ? तथा उस दुःखका मूल स्वरूप क्या है ? और उसकी निवृत्ति किस प्रकारसे हो सकती है ? तथा जगतकी विचित्र रचनाका आंतरिक स्वरूप क्या है ? इत्यादि प्रकारमें जिसे विचारशा उत्पन्न हुई है ऐसे मुमुक्षु पुरुषने, पूर्व पुरुषोंने उपर्युक्त विचारों संबंधी जो कुछ समाधान किया था, अथवा माना था, उस विचारके समाधानके प्रति भी यथाशक्ति आलोचना की । वह आलोचना करते हुए विविध प्रकारके मतमतांतर तथा अभिप्राय संबंधी यथाशक्ति विशेष विचार किया, तथा नाना प्रकारके रामानुज आदि सम्प्रदायोंका विचार किया; तथा वेदांत आदि दर्शनका विचार किया । उस -आलोचनामें अनेक प्रकारसे उस दर्शनके स्वरूपका मंथन किया, और प्रसंग प्रसंगपर मंथनकी योग्यताको प्राप्त हुए जैनदर्शनके संबंध में अनेक प्रकारसे जो मंथन हुआ, उस मंथनसे उस दर्शन के सिद्ध होनेके लिये, जो पूर्वापर विरोध जैसे मालूम होते हैं ऐसे निम्नलिखित कारण दिखायी दिये । ६३. [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १३२] धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय अरूपी होनेपर भी रूपी पदार्थको सामर्थ्य देते हैं, और ये तीन द्रव्य स्वभावपरिणामी कहे हैं, तो ये अरूपी होनेपर रूपीको कैसे सहायक हो सकते हैं ? धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय एकक्षेत्रावगाही हैं, और उनका स्वभाव परस्पर विरुद्ध है, फिर भी उनमें, गतिप्राप्त वस्तुके प्रति स्थिति सहायक तारूपसे और स्थितिप्राप्त वस्तुके प्रति गतिसहायकतारूपसे विरोध किसलिये न आये ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और एक आत्मा ये तीन समान असंख्यातप्रदेशी हैं, इसका कोई दूसरा रहस्यार्थ है ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायकी अवगाहना अमुक अमूर्ताकारसे है, ऐसा होने में कोई रहस्यार्थ है ? लोकसंस्थानके सदैव एक स्वरूप से रहने में कोई रहस्यार्थ है ? एक तारा भी घट-बढ़ नहीं होता, ऐसी अनादि- स्थिति किस हेतुसे मानना ? शाश्वतताकी व्याख्या क्या ? आत्मा या परमाणुको शाश्वत माननेमें कदाचित् मूल द्रव्यत्व कारण है; परन्तु तारा, चंद्र, विमान आदिमें वैसा क्या कारण है ?
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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