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________________ ८२४ श्रीमद राजचन्द्र '... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ११८) तीनों कालोंमें जो वस्तु जात्यंतर न हो उसे श्री जिनेंद्र द्रव्य कहते हैं। कोई भी द्रव्य पर-परिणामसे परिणमन नहीं करता । स्वत्वका त्याग नहीं कर सकता। प्रत्येक द्रव्य (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे) स्वपरिणामी है. :: ... : नियत अनादि मर्यादारूपसे रहता है। जो चेतन है वह कभी अचेतन नहीं होता; जो अचेतन है वह कभी चेतन नहीं होता। ५७ . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२०] हे योग ! ... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२१] एक चैतन्यमें यह सब किस तरह घटित होता है ? . . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२२] यदि इस जीवने वे विभावपरिणाम क्षीण न किये तो इसी भवमें वह प्रत्यक्ष दुःखका वेदन करेगा। [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२४] जिस जिस प्रकारसे आत्माका चिंतन किया हो उस उस प्रकारसे वह प्रतिभासित होता है। विषयाततासे जिस जीवकी विचारशक्ति मूढ हो गयी है उसे आत्माकी नित्यता भासित नहीं होती, ऐसा प्रायः दिखायी देता है, वैसा होता है, यह यथार्थ है; क्योंकि अनित्य विषयमें आत्मबुद्धि होनेसे अपनी भी अनित्यता भासित होती है। विचारवानको आत्मा विचारवान लगता है। शून्यरूपसे चिन्तन करनेवालेको आत्मा शुन्य लगता है, अनित्यरूपसे चिंतन करनेवालेको आत्मा अनित्य लगता है, नित्यरूपसे चिन्तन करनेवालेको आत्मा नित्य लगता है। चेतनकी उत्पत्तिके कुछ भी संयोग दिखायो नहीं देते, इसलिये चेतन अनुत्पन्न है। उस चेतनके विनष्ट होनेका कोई अनुभव नहीं होता, इसलिये अविनाशी है-नित्य अनुभवस्वरूप होनेसे नित्य है। समय समयमें परिणामांतरको प्राप्त होनेसे अनित्य है। ... .... . स्वस्वरूपका त्याग करनेके अयोग्य होनेसे मूल द्रव्य है। " [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२६] सबको अपेक्षा वीतरागके वचनको संपूर्ण प्रतीतिका स्थान कहना योग्य है, क्योंकि जहाँ राग आदि दोषोंका संपूर्ण क्षय होता है वहाँ संपूर्ण ज्ञानस्वभाव प्रगट होना योग्य है ऐसा नियम है। श्री जिनेन्द्रमें सबकी अपेक्षा उत्कृष्ट वीतरागता होना संभव है, क्योंकि उनके वचन प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जिस किसी पुरुषमें जितने अंशमें वीतरागताका संभव है उतने अंशमें उस पुरुषका वाक्य मानने योग्य है। ___ सांख्य आदि दर्शनोंमें बंध एवं मोक्षको जो जो व्याख्याएं बतायी हैं उन सवसे बलवान प्रमाणसिद्ध व्याख्या श्री जिनेंद्र वीतरागने कही है, ऐसा जानता हूँ। शंका-जिन जिनेंद्रने द्वैतका निरूपण किया है, आत्माको खंड द्रव्यवत् कहा है, कर्ताभोक्ता कहा है, और निर्विकल्प समाधिके अंतरायमें मुख्य कारण हो ऐसो पदार्थकी व्याख्या की है, उन जिनेंद्रकी शिक्षा प्रबल प्रमाण सिद्ध है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? केवल अद्वैत-और [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२५]
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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