SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७ वर्षसे पहले १९ वालों हैं। आलस्यको बढानेवाली है। स्मृतिका नाश करनेवाली है । ऐसी यह वृद्धावस्था है । मौतसे मिलाप करानेवाली दूती जैसी वृद्धावस्थाको प्राप्त होनेसे अपने आत्महितका विस्मरण करके स्थिर हो रहे हैं, यह महान अनर्थ है । वांरवार मनुष्यजन्मादि सामग्री नही मिलती । नेत्र आदि इद्रियोका जो तेज है उसका क्षण-क्षणमे नाश होता है । समस्त सयोग वियोगरूप समझे । इन इद्रियो के विषयोमे राग करके कौन-कौन नष्ट नही हुए ? ये सभी विषय भी नष्ट हो जायेंगे, और इद्रियां भी नष्ट हो जानेवाली हैं । किसके लिये आत्महितको छोड़कर घोर पापरूप अशुभ ध्यान कर रहे है ? विषयोमे राग करके अधिकाधिक लीन हो रहे है ? सभी विपय आपके हृदयमे तीव्र दाह उत्पन्न करके विनाशको प्राप्त होगे । इस शरीरको सदा रोगसे व्याप्त जानें। जीवको मरणसे घिरा हुआ जानें । ऐश्वर्यको विनाशके सन्मुख जाने । यह जो सयोग है उसका नियमसे वियोग होगा । ये समस्त विषय आत्मस्वरूपको भुलानेवाले है । इनमे अनुरक्त होकर त्रिलोक नष्ट हो गया है। जिन विषयोके सेवनसे सुख चाहते हैं, वह जीने के लिये विष पीना है, शीतल होनेके लिये अग्निमे प्रवेश करनेके समान है, मीठे भोजनके लिये जहरके वृक्षको पानी देना है । विषय महामोहमदके उत्पादक है, उनका राग छोडकर आत्मकल्याण करनेका यत्न करें । अचानक मृत्यु आयेगी, फिर यह मनुष्यजन्म तथा जिनेन्द्रका धर्मं चले जानेके बाद पुन प्राप्त होने अनतकालमे दुर्लभ है। जैसे नदीका प्रवाह निरतर चला जाता है, फिर नही आता, वैसे आयु, काया, रूप, बल, लावण्य और इद्रियशक्ति चले जानेके बाद वापस नही आते । जो ये प्रिय माने हुए स्त्री, पुत्र' आदि नजरसे दिखायी देते है, उनका संयोग नही रहेगा । स्वप्न- संयोगके समान जान कर इनके लिये अनीति-पाप छोडकर शीघ्र ही सयमादि धारण करें। वह इद्रजालकी भाँति लोगोमे भ्रम पैदा करनेवाला है । इस ससारमे धन, योवन, जीवन, स्वजन और परजनके समागममे जीव अंधा हो रहा है । यह धनसंपत्ति चक्रवर्तियों के यहाँ भी स्थिर नही रही, तो फिर दूसरे पुण्य होनके यहाँ कैसे स्थिर रहेगी ? यौवन वृद्धावस्थासे नष्ट होगा। जीवन मरणसहित है । स्वजन परजन वियोग के सन्मुख है । किसमे स्थिर बुद्धि करते हैं ? इस देहको नित्य स्नान कराते हैं, सुगन्ध लगाते हैं, आभरण, वस्त्र आदिसे विभूषित करते है, विविध प्रकारके भोजन कराते है, वांरवार इसी की दासतामे समय व्यतीत करते हैं, शय्या, आसन, कामभोग, निद्रा, शीतल, उष्ण आदि अनेक उपचारोसे इसे पुष्ट करते है । इसके रागमे ऐसे अधे हो गये हैं कि भक्ष्य-अभक्ष्य, योग्य-अयोग्य, न्याय-अन्यायके विचारसे रहित होकर, आत्मधर्मको बिगाडना, यशका विनाश करना, मरणको प्राप्त होना, नरकमे जाना, निगोदमे वास करना - इन सबको नही गिनते । इस शरीरका जलसे भरे हुए कच्चे घडेकी तरह शीघ्र विनाश हो जायेगा । इस देह का उपकार कृतघ्नके उपकारकी भांति विपरीत फलित होगा । सर्पको दूध मिसरीका पान कराने के समान अपनेको महान दुख, रोग, क्लेश, दुर्ध्यान, असयम, कुमरण और नरकके कारणरूप शरीरका मोह है, ऐसा निश्चयपूर्वक जानें | इस शरीरको ज्यो-ज्यो विषयादिसे पुष्ट करेंगे त्यो त्यो यह आत्माका नाश करनेमे समर्थ होगा । एक दिन इसे आहार नही देंगे तो यह बहुत दुख देगा । जो-जो शरीरके रागी हुए हैं, वे वे ससारमे नष्ट होकर एव आत्मकार्यको बिगाडकर अनतानत काल नरक और निगोदमे भ्रमण करते हैं । जिन्होने इस शरीरको तपसयममे लगाकर कृश किया है उन्होने अपना हित किया है । ये इद्रियाँ ज्यो ज्यो विषयोको भोगती है, त्यो त्यो तृष्णाको बढाती है । जैसे अग्नि ईंधनसे तृप्त नही होती, वैसे ही इद्रियाँ विपयोसे तृप्त नही होती । एक-एक इद्रियके विषयकी वाछा करके बडे-बडे चक्रवर्ती राजा भ्रष्ट होकर नरकमे जा पहुँचे है, तो फिर दूसरोका तो क्या कहना ? इन इद्रियोको दुखदायी, पराधीन करनेवाली, नरकमे पहुँचानेवाली जानकर, इन इन्द्रियोका राग छोडकर इन्हे वश करें । ससारमे हम जितने निंद्य कर्म करते हैं, वे सब इंद्रियोके अधीन होकर करते है । इसलिये इद्रियरूपी सर्प विपसे आत्माकी रक्षा करें। यह लक्ष्मी क्षणभंगुर है । यह लक्ष्मी कुलीनमे नही रमती । धीरमे,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy