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________________ ८०८ . .. श्रीमद् राजचन्द्र. ... ... . ___ नंबर '८-९-१०' उसकी अपेक्षा क्रमसे उज्ज्वल हैं, किंतु उसी, जातिके हैं। ११' नंबरवाला पतित हो जाता है इसलिये उसका यहाँ आना नहीं हुआ | दर्शन होनेके लिये मैं बारहवेंमें ही हूँ--अभी मैं उस पदको संपूर्ण देखनेवाला हूँ, परिपूर्णता पानेवाला हूँ। आयुस्थिति पूरी होनेपर आपके देखे हुए पदमें एक मुझे भी देखेंगे। -: . . ... ... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १५] पिताजी, आप महाभाग्य है। .. • ऐसे नंबर कितने हैं ? . . वृक्ष-पहले तीन नंबर आपको अनुकूल नहीं आयेंगे । ग्यारहवाँ भी वैसा ही है । '१३-१४' आपके पास आयें ऐसा उनको निमित्त नहीं रहा। '१३' यत्किंचित् आ जाये; परंतु पू: क० हो तो उनका आगमन हो, नहीं तो नहीं । चौदहवेंका आगमन-कारण मत पूछना, कारण नहीं है। . .. : (नेपथ्य) "आप इन सबके अंतरमें प्रवेश करें । मैं सहायक होता हूँ।" . चलें। ४ से ११ + १२ तक क्रम-क्रमसे सुखको उत्तरोत्तर बढ़ती हुई लहरें उमड़ रही थीं। अधिक क्या कहें ? मुझे वह बहुत प्रिय लगा; और यही मुझे अपना लगा। ... वृद्धने मेरे मनोगत भावको जानकर कहा-यही है आपका कल्याणमार्ग। जायें तो भले और आयें तो यह समुदाय रहा। ............ ... . मैं उठकर उनमें मिल गया। . . [स्वविचार भुवन, द्वार प्रथम] ........... ........: संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १७] कायाकी नियमितता। . . ... ... वचनको ... स्याद्वादिता। मनकी उदासीनता। आत्माकी मुक्तता। .. .... . . . . .. . . . (यह अंतिम समझ) . .. . . ... ७ [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १८] ..... ... ... . . . . . . . . : . आत्मसाधन द्रव्य-मैं एक हूँ, असंग हूँ, सर्व परभावसे मुक्त हूँ। क्षेत्र-असंख्यात निज-अवगाहना प्रमाण हूँ। काल-अजर, अमर, शाश्वत हूँ। स्वपर्याय-परिणामी समयात्मक हूँ। ... भाव-शुद्ध चैतन्य मात्र निर्विकल्प द्रष्टा हूँ। वचनसंयम-. . वचनसंयममनःसंयमकायसंयम१. पूर्वकर्म । मनःसंयमकायसंयम [संस्मरण पोथी १, पृष्ठ १९] वचनसंयम। ...... मनःसंयम । . . . .. कायसंयम।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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