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________________ आभ्यंतर परिणाम अवलोकन - संस्मरण पोथी १ इतनी अधिक बेपरवाही ? आमंत्रण तो मान्य करना ही चाहिये; आप क्या कहते हैं ? इन्हें आमंत्रण-अनामंत्रणसे कोई संबंध नहीं है । 1000 [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १२] वे परिपूर्ण स्वरूप सुखमें विराजमान हैं ।' यह मुझे बतायें । एकदम —- बहुत जल्दीसे । 'उनका दर्शन तो बहुत दुर्लभ है | लीजिये, यह अंजन ऑजकर दर्शन प्रवेश साथमें कर देखें । अहो ! ये बहुत सुखी हैं। इन्हें भय भी नहीं है । शोक भी नहीं है । हास्य भी नहीं है । वृद्धता नहीं है। रोग नहीं है। आधि भी नहीं है, व्याधि भी नहीं है, उपाधि भी नहीं है, यह सब कुछ नहीं है । परंतु अनंत अनंत सच्चिदानंदसिद्धिसे वे पूर्ण हैं । हमें ऐसा होना है । .. 'क्रमसे हुआ जा सकेगा ।"-. यह क्रम-ब्रम यहाँ नहीं चलेगा । यहाँ तो तुरन्त वही पद चाहिये' 'जरा शांत हो, समता रखें, और क्रमको अंगीकार करें। नहीं तो उस पदसे युक्त होना सम्भव नहीं ।' ८०७ ... "होना संभव नहीं" इस अपने वचनको आप वापस लें । क्रम त्वरासे बतायें, और उस पदमें तुरन्त भेजें। !... बहुतसे मनुष्य आये हैं । उन्हें यहाँ बुलायें । उनमेंसे आपको क्रम मिल सकेगा ।' [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १३] चाहा कि वे आये; ..आप मेरा आमंत्रण स्वीकार कर चले आये इसके लिये आपका उपकार मानता हूँ । आप सुखी हैं, यह बात सच है क्या ? आपका पद क्या सुखवाला माना जाता है ऐसा ? एक वृद्ध पुरुषने कहा – 'आपका आमंत्रण स्वीकार करना या न करना ऐसा हमें कुछ बंधन नहीं है। हम सुखी हैं या दुःखी, यह बताने के लिये भी हमारा यहाँ आगमन नहीं है । अपने पदकी व्याख्या करनेके लिये भी आगमन नहीं है । आपके कल्याणके लिये हमारा आगमन है ।' कृपा करके शीघ्र कहिये कि आप मेरा क्या कल्याण करेंगे ? और आये हुए पुरुषोंकी पहचान कराइये । उन्होंने पहले परिचय कराया इस वर्गमें ४-५-६-७-८-९-१०-१२ नंबरवाले मुख्यतः मनुष्य हैं । ये सब उसी पदके आराधक योगी हैं कि जिस पदको आपने प्रिय माना है नं० ४ से वह पद हो सुखरूप है, और बाकीकी जगत व्यवस्था जैसे हम हैं । उस पदके लिये उनकी हार्दिक अभिलाषा है परंतु वे प्रयत्न नहीं कर सकते, उन्हें अंतराय है । [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ १४] मानते हैं, वैसे वे मानते क्योंकि कुछ समय तक अंतराय क्या ? करनेके लिये तत्पर हुए कि बस वह हो गया । वृद्ध - आप जल्दी न करें । इसका समाधान अभी आपको मिल सकेगा, मिल जायेगा । ठोक, आपकी इस वातसे मैं सम्मत होता है । वृद्ध -- यह '५' नंबरवाला कुछ प्रयत्न भी करता है। वाकी सब बातोंमें नंबर '४' की तरह है । नंबर '६' सब प्रकारसे प्रयत्न करता है । परंतु प्रमत्तदशासे प्रयत्न में मंदता आ जाती है । नंबर '७' सर्वथा अप्रमत्त- प्रयत्नवान है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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