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________________ व्याख्यानसार - २. ७९९ मोरवी, श्रावण वदी ८, शनि, १९५६ ३० कम्मदव्वे हि संमं संजोगो होई जो उ जीवस्स । सो बंधो नायव्वो तस्स विओगो भवे मुक्खो ॥ अर्थ-कर्मद्रव्य अर्थात पुद्गलद्रव्यके साथ जीवका जो संबंध होना है वह बंध है, उसका वियोग होना मोक्ष है । संमं अच्छी तरहसे संबंध होना, यथार्थतासे संबंध होना; जैसे-तैसे कल्पना करके संबंध होने का मान लेना सो नहीं । २. प्रदेश और प्रकृतिबंध मन-वचन-कायाके योगसे होता है । स्थिति और अनुभागबंध कषायसे होता है । ३. विपाक अर्थात् अनुभाग द्वारा फलपरिपक्वता होना । सब कर्मो का मूल अनुभाग है, उसमें जैसा तीव्र, तीव्रतर, मंद, मंदतर रस पड़ा है वैसा उदय में आता है । उसमें अंतर या भूल नहीं होती । कुल्हिया - में पैसा, रुपया, मुहर आदि रखनेका दृष्टांत - जैसे किसी कुल्हिया में बहुत समय पहले पैसा, रुपया, और मुहर डाल रखे हों; उन्हें जिस समय निकालें तो वे उसी जगह उसी धातुरूपसे निकलते हैं, उसमें जगहमें और उनकी स्थितिमें परिवर्तन नहीं होता अर्थात् पैसा रुपया नहीं हो जाता, और रुपया पैसा नहीं हो जाता; उसी तरह बाँधा हुआ कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार उदयमें आता है । ४. आत्माके अस्तित्वमें जिसे शंका होती है उसे ' चार्वाक' कहा जाता है । ५. तेरहवें गुणस्थानकमें तीर्थंकर आदिको एक समयका बंध होता है । मुख्यतः कदाचित् ग्यारहवें गुणस्थानकमें अकषायीको भी एक समयका बंध हो सकता है । : ६. पवन पानीकी निर्मलताका: भंग नहीं कर सकता; परन्तु उसे चलायमान कर सकता है । उसी तरह आत्माके ज्ञानमें कुछ निर्मलता कम नहीं होती, परन्तु योगको चलायमानता है, इसलिये रसके बिना एक समयका बंध कहा है । ७.. . यद्यपि कषायका रस पुण्य तथा पापरूप है तो भी उसका स्वभाव कड़वा है । ८. पुण्य भी खारापनमेंसे होता है । पुण्यका चौठाणिया रस नहीं है, क्योंकि एकांत साताका उदय नहीं है । कषायके दो भेद - ( १ ) प्रशस्तराग और (२) अप्रशस्तराग । कषायके बिना बंध नहीं होता । ९. आर्तध्यानका समावेश मुख्यतः कषायमें हो सकता है, प्रमादका चारित्रमोहमें और योगका नामकर्ममें समावेश हो सकता है । १०. श्रवण पवनकी लहरके समान है । वह आता है और चला जाता है । ११. मनन करनेसे छाप पड़ती है, और निदिध्यासन करने से ग्रहण होता है । १२. अधिक श्रवण करने से मननशक्ति मंद होती हुई देखनेमें आती है । १३. प्राकृतजन्य अर्थात् लौकिक वाक्य, ज्ञानीका वाक्य नहीं । १४. आत्मा प्रत्येक समय उपयोगसहित होनेपर भो अवकाशकी कमी अथवा कामके वोझके कारण उसे आत्मासंबंधी विचार करनेका समय नहीं मिल सकता यों कहना प्राकृतजन्य 'लौकिक' वचन हैं। यदि खाने, पीने, सोने इत्यादिका समय मिला और काम किया वह भी आत्मा के उपयोगके बिना नहीं हुआ; तो फिर खास जिस सुखकी आवश्यकता है, और जो मनुष्य जन्मका कर्तव्य है उसके लिये समय नहीं मिला, इस वचनको ज्ञानी कभी भी सच्चा नहीं मान सकते। इसका अर्थ इतना ही है कि दूसरे इंद्रिय आदि सुखके काम तो जरूरी लगे हैं. और उसके बिना दुःखी होनेके उरको कल्पना है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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