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________________ श्रीमद राजचन्द्र ८. जहाँ दर्शन रुक जाता है वहाँ ज्ञान भी रुक जाता हैं । ९. दर्शन और ज्ञानका बटवारा किया गया है । ज्ञान-दर्शन के कुछ टुकड़े होकर वे अलग अलग नहीं हो सकते । ये आत्म के गुण हैं । जिस तरह रुपये में दो अठन्नी होती हैं उसी तरह आठ आना दर्शन और आठ आना ज्ञान है । ७९८ १०. तीर्थंकरको एक ही समय में दर्शन और ज्ञान दोनों साथ होते हैं, इस तरह दो उपयोग दिगम्बरमतके अनुसार हैं, श्वेताम्बर - मत के अनुसार नहीं । बारहवें गुणस्थानकमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय इन तीन प्रकृतियोंका क्षय एक साथ होता है, और उत्पन्न होनेवाली लब्धि भी एक साथ होती है । यदि एक समय में न होते हों तो एक दूसरी प्रकृतिको रुकना चाहिये । श्वेताम्बर कहते हैं कि ज्ञान सत्तामें रहना चाहिये, क्योंकि एक समयमें दो उपयोग नहीं होते; परन्तु दिगम्बरोंकी उससे भिन्न मान्यता है । ११. शून्यवाद = कुछ भी नहीं ऐसा माननेवाला; यह बौद्धधर्मका एक भेद है । आयतन = किसी भी पदार्थका स्थल, पात्र । कूटस्थ = अचल, जो दूर न हो सके । तटस्थ = किनारे पर; उस स्थलमे । मध्यस्थ = बीच में | २७ मोरबी, आषाढ वदी १३, मंगल, १९५६ १. चयोपचय = जाना-जाना, परन्तु प्रसंगवशात् आना-जाना, गमनागमन । मनुष्यके जाने आनेको लागू नहीं होता । श्वासोच्छ्वास इत्यादि सूक्ष्म क्रियाको लागू होता है । चयविचय = जाना आना । २. आत्माका ज्ञान जब चिता में रुक जाता है तब नये परमाणु ग्रहण नहीं हो सकते; और जो होते हैं, वे चले जाते हैं, इससे शरीरका वज़न घट जाता है । ताजा ३. श्री आचारांगसूत्रके पहले शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनमें और श्री षड्दर्शनसमुच्चय में मनुष्य और वनस्पतिके धर्मकी तुलना कर वनस्पतिमें आत्माका अस्तित्व सिद्ध कर बताया है, वह इस तरह कि दोनों उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, आहार लेते हैं, परमाणु लेते हैं, छोड़ते हैं, मरते हैं इत्यादि । २८ मोरबी, श्रावण सुदी ३, रवि, १९५६ १. साधु = सामान्यतः गृहवासका त्यागी, मूलगुणों का धारक । यति = व्यानमें स्थिर होकर श्रेणि शुरू करनेवाला | मुनि = जिसे अवधि, मनःपर्यायज्ञान हो तथा केवलज्ञान हो । ऋषि = बहुत ऋद्धिधारी । ऋषिके चार भेद – (१) राज०, (२) ब्रह्म०, (३) देव० (४) परम० राजर्षि = ऋद्धिवाला, ब्रह्मर्षि = अक्षीण महान ऋद्धिवाला, देवर्षि = आकाशगामी मुनिदेव, परमर्षि = केवलज्ञानी । २९ श्रावण सुदी १०, सोम, १९५६ १. अभव्य जीव अर्थात् जो जीव उत्कट रससे परिणमन करे और उससे कर्म बाँधा करे, और इस कारण उसका मोक्षं न हों । भव्य अर्थात् जिस जीवका वीर्यं शांतरससे परिणमन करे और उससे नया कर्मबंध न होनेसे मोक्ष हो । जिस जीवकी वृत्ति उत्कट रससे परिणमन करती हो उसका वीर्यं उसके अनुसार परिणमन करता है; इसलिये ज्ञानीके ज्ञानमें अभव्य प्रतीत हुए । आत्माकी परमशांत दशासे 'मोक्ष' और उत्कट दशासे 'अमोक्ष' । ज्ञानीने द्रव्यके स्वभावकी अपेक्षासे भव्य, अभव्य कहे हैं । जीवका वीर्य उत्कट रससे परिणमन करनेसे सिद्धपर्याय प्राप्त नहीं हो सकता, ऐसा ज्ञानीने कहा है । भजना = = अंशसे; हो या न हो | वंचक = ( मन, वचन और कायासे) ठगनेवाला ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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