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________________ ८०० श्रीमद राजचन्द्र . आत्मिक सुखके विचारका काम किये बिना अनंतकाल दुःख भोगना पड़ेगा और अनंत संसारभ्रमण करना पड़ेगा, यह बात जरूरी नहीं लगती। मतलब यह कि इस चैतन्यने कृत्रिम मान रखा है, सच्चा नहीं माना। . १५. सम्यग्दृष्टि पुरुष, अनिवार्य उदयके कारण लोकव्यवहार निर्दोषता एवं लज्जाशीलतासे करते हैं। प्रवृत्ति करनी चाहिये, उससे शुभाशुभ जैसा होना होगा, वैसा होगा ऐसी दृढ़ मान्यताके साथ वे ऊपर-ऊपरसे प्रवृत्ति करते हैं। . १६. दूसरे पदार्थोंपर उपयोग दें तो आत्माकी शक्तिका आविर्भाव होता है, तो सिद्धि, लब्धि आदि शंकास्पद नहीं हैं । वे प्राप्त नहीं होती इसका कारण यह है कि आत्मा निरावरण नहीं किया जा सकता। ये सब शक्तियाँ सच्ची हैं। चैतन्यमें चमत्कार चाहिये, उसका शद्ध रस प्रगट होना चाहिये । ऐसी सिद्धिवाले पुरुष अंसाताकी साता कर सकते हैं, फिर भी वे उसकी अपेक्षा नहीं करते। वे वेदन करने में ही निर्जरा समझते हैं। १७. आप जीवोंमें उल्लासमान वीर्य या पुरुषार्थ नहीं है । जहाँ वीर्य मंद पड़ा वहाँ उपाय नहीं है। १८. जब असाताका उदय न हो तब काम कर लेना, ऐसा ज्ञानीपुरुषोंने जीवका असामर्थ्य देखकर कहा है, कि जिससे उसका उदय आनेपर चलित न हो । १९. सम्यग्दृष्टि पुरुषको जहाजके कप्तानकी तरह पवन विरुद्ध होनेसे जहाजको मोड़कर रास्ता बदलना पड़ता है। उससे वे ऐसा समझते हैं कि स्वयं ग्रहण किया हुआ रास्ता सच्चा नहीं है, उसी तरह ज्ञानीपुरुष उदय-विशेषके कारण व्यवहारमें भी अन्तरात्मदृष्टि नहीं चकते। . . . .' २०. उपाधिमें उपाधि रखनी । समाधिमें समाधि रखनी । अंग्रेजोंकी तरह कामके वक्त काम और आरामके वक्त आराम । एक दूसरेका मिश्रण नहीं कर देना चाहिये। .. २१. व्यवहारमें आत्मकर्तव्य करते रहें। सुखदुःख, धनकी प्राप्ति-अप्राप्ति, यह शुभाशुभ तथा लाभांतरायके उदयपर आधार रखता है । शुभके उदयके साथ पहलेसे अशुभके उदयकी पुस्तक पढ़ी हो तो शोक नहीं होता । शुभके उदयके समय शत्रु मित्र हो जाता है, और अशुभके उदयके.समय मित्र शत्रु हो जाता है । सुखदुःखका असली कारण कर्म ही है। कार्तिकेयानुप्रेक्षामें कहा है कि कोई मनुष्य कर्ज लेने आये तो उसे कर्ज चुका देनेसे सिरका बोझ कम हो. जानेसे कैसा हर्ष होता है ? उसी तरह पुद्गल-द्रव्यरूप शुभाशुभ कर्ज जिस कालमें उदयमें आये उस कालमें उसका सम्यक प्रकारमें वेदन कर चुका देनेसे निर्जरा होती है और नया कर्ज नहीं होता। इसलिये ज्ञानीपुरुषको कर्मरूपी कर्ज से मुक्त होनेके लिये हर्षविह्वलतासे तैयार रहना चाहिये; क्योंकि उसे दिये बिना छुटकारा होनेवाला नहीं है । २२. सुखदुःख जिस द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे उदयमें आनेवाला हो उसमें इंद्र आदि भी परिवर्तन करनेके लिये शक्तिमान नहीं हैं।.. २३. चरणानुयोगमें ज्ञानीने अंतर्मुहर्त आत्माका अप्रमत्त उपयोग माना है। . २४. करणानुयोगमें सिद्धांतका समावेश होता है। ... २५. चरणानुयोगमें जो व्यवहारमें आचरणीय है उसका समावेश किया है। २६. सर्वविरति मुनिको ब्रह्मचर्यनतकी प्रतिज्ञा ज्ञानी देते हैं, वह चरणानुयोगकी अपेक्षासे, परन्तु करणानुयोगकी अपेक्षासे नहीं; क्योंकि करणानुयोगके अनुसार नौवें गुणस्थानकमें वेदोदयका क्षय हो सकता है, तब तक नहीं हो सकता।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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