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________________ व्याख्यानसार - २ ७९७ होनेसे अर्थात् कुछका कुछ जानने से वीर्यकी प्रवृत्ति विपरीतरूपसे होती है, यदि सम्यक्रूपसे हो तो सिद्धपर्याय प्राप्त हो जाता है । आत्मा कभी भी क्रियाके बिना नहीं हो सकता । जब तक योग है तब तक जो क्रिया करता है, वह अपनी वीर्यशक्तिसे करता है । वह क्रिया देखनेमें नहीं आती; परन्तु परिणामसे जाननेमें आती है। खाई हुई खुराक निद्रामें पच जाती है, यों सबेरे उठनेपर मालूम होता है। निद्रा अच्छी आयी थी इत्यादि कहते हैं, यह भी हुई क्रिया के समझ में आनेसे कहा जाता है । यदि चालीस बरस की उमर में अंक गिनना आये तो इससे क्या यह कहा जा सकेगा कि अक पहले नहीं थे ? बिलकुल नहीं। स्वयंको उसका ज्ञान नहीं था इसलिये ऐसा कहता है । इसी तरह ज्ञान-दर्शनके बारेमें समझना है । आत्माके ज्ञान, दर्शन और वीर्य थोडेबहुत भी खुले रहने से आत्मा क्रियामें प्रवृत्ति कर सकता है। वीर्यं सदा चलाचल रहा करता है । कर्मग्रन्थ पढ़नेसे विशेष स्पष्ट होगा । इतने स्पष्टीकरण से बहुत लाभ होगा | ३. पारिणामिक भावसे सदा जीवत्व है, अर्थात् जीव जीवरूपसे परिणमन करता है, और सिद्धत्व क्षायिक-भावसे होता है, क्योंकि प्रकृतियोंका क्षय करनेसे सिद्धपर्याय मिलता है ४. मोहनीयकर्म औदयिक भावसे होता है । ५. वणिक विकल अर्थात् मात्रा, शिरोरेखा आदिके बिना अक्षर लिखते हैं, परन्तु अंक विकल नहीं लिखते, उन्हें तो बहुत स्पष्टतासे लिखते हैं । उसी तरह कथानुयोगमें ज्ञानियोंने शायद विकल लिखा हो तो भले; परन्तु कर्मप्रकृतिमें तो निश्चित अंक लिखे हैं । उसमें जरा भी फर्क नहीं आने दिया । b २५ मोरबी, आषाढ़, वदी ११, रवि, १९५६ १. ज्ञान धागा पिरोयी हुई सूईके समान है, ऐसा उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है । धागेवाली सूई खोयी नहीं जाती । उसी तरह ज्ञान होनेसे संसार में गुमराह नहीं हुआ जाता । . २६ मोरवी, आषाढ वदी १२, सोम, १९५६ १. प्रतिहार = तीर्थंकरका धर्मराज्यत्व बतानेवाला । प्रतिहार = दरवान । २. स्थूल, अल्पस्थूल, उससे भी स्थूल; दूर, दूरसे दूर, उससे भी दूर; ऐसा मालूम होता है; और इस आधारसे सूक्ष्म, सूक्ष्म से सूक्ष्म आदिका ज्ञान किसीको भी होना सिद्ध हो सकता है । ३. नग्न - आत्ममग्न । 1 ४. उपहत = मारा गया । अनुपहत = नहीं मारा गया । उपष्टंभजन्य = आधारभूत । अभिधेय = जो वस्तुधर्मं कहा जा सके । पाठांतर = एक पाठकी जगह दूसरा पाठ । अर्थातर = कहनेका हेतु बदल जाना । विषम = जो यथायोग्य न हो, अंतरवाला, कम-ज्यादा । आत्मद्रव्य सामान्य विशेष उभयात्मक सत्तावाला है । सामान्य चेतनसत्ता दर्शन है । सविशेष चेतनसत्ता ज्ञान है । ५. सत्ता समुद्भूत= सम्यक् प्रकारसे सत्ताका उदयभूत होना, प्रकाशित होना, स्फुरित होना, ज्ञात होना । ६. दर्शन = जगतके किसी भी पदार्थका भेदरूप रसगंधरहित निराकार प्रतिविवित होना, उसका अस्तित्व भास्यमान होना; निर्विकल्परूपसे कुछ हैं, इस तरह आरसीकी झलककी भांति सामनेके पदार्थका भास होना, यह दर्शन है। विकल्प हो वहाँ 'ज्ञान' होता है । ७. दर्शनावरणीय कर्मके आवरणके कारण दर्शन अवगाढतासे आवृत होनेसे चेतनमें मूढता हो गयी और वहांसे शून्यवाद शुरू हुआ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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