SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 929
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७९६ श्रीमद् राजचन्द्र उस रूपसे परिणमन करती है, उसमें अंतर नहीं आता। उसी तरह विष लिया जाये; अथवा सर्प काट ले तो वह क्रिया तो एक ही जगह होती है; परन्तु उसका असर विषरूपसे प्रत्येक इंद्रियको भिन्न भिन्न प्रकारसे सारे शरीरमें होता है । इसी तरह कर्म बाँधते समय मुख्य उपयोग एक प्रकृतिका होता है, परन्तु उसका असर अर्थात् बटवारा दूसरी सब प्रकृतियोंके पारस्परिक सम्बन्धको लेकर मिलता है। जैसा रस वैसा ही उसका ग्रहण होता है । जिस भागमें सर्पदंश होता है उस भागको यदि काट दिया जाये तो विष नहीं चढ़ता; उसी तरह यदि प्रकृतिका क्षय किया जाये तो बंध होनेसे रुक जाता है, और उसं कारण दूसरी प्रकृतियोंमें बटवारा होनेसे रुक आता है । जैसे. दूसरे प्रयोगसे चढ़ा हुआ विष वापस उतर जाता है, वैसे प्रकृतिका रस मंद कर डाला जाये तो उसका बल कम होता है। एक प्रकृति बंध करती है तो दूसरी प्रकृतियाँ उसमेंसे भाग लेती है, ऐसा उनका स्वभाव है। . ४. मूल कर्मप्रकृतिका क्षय न हुआ हो तब तक उत्तर कर्मप्रकृतिका बंध विच्छेद हो गया हो तो भी उसका बंध मूल प्रकृतिमें रहे हुए रसके कारण हो सकता है, यह आश्चर्य जैसा है। जैसे दर्शनावरणीयमें निद्रा-निद्रा आदि । ५ अनंतानुबंधी कर्मप्रकृतिकी स्थिति चालीस कोडाकोड़ीकी, और मोहनीय (दर्शन मोहनीय) की सत्तर कोडाकोड़ीकी है। २३ - मोरवी, आषाढ वदी ९, शुक्र, १९५६ ____१. आयुका बंध एक आनेवाले. भवका आत्मा कर सकता है, उससे अधिक भवोंका बंध नहीं कर सकता। २. कर्मग्रन्थके बंधचक्रमें जो आठ कर्मप्रकृतियाँ बतायी हैं, उनको उत्तरप्रकृतियाँ एक जीवआश्रयी अपवादके साथ बंध उदय आदिमें हैं; परन्तु उसमें आयु अपवादरूप है। वह इस तरह कि मिथ्यात्वगुणस्थानकवर्ती जीवको बंधमें चार आयुकी प्रकृतिका (अपवाद) बताया है। उसमें ऐसा नहीं समझना कि जीव चालू पर्यायमें चारों गतियोंकी आयुका बंध करता है; परंतु आयुका बंध करनेके लिये वर्तमान पर्यायमें इस गुणस्थानकवर्ती जीवके लिये चारों गतियाँ खुली हैं। उन चारोंमेंसे एक एक गतिका बंध कर सकता है। उसी तरह जिस पर्यायमें जीव हो उसे उस आयुका उदय होता है। तात्पर्य कि चार गतियोंमेंसे वर्तमान एक गतिका उदय हो सकता है; और उदोरणा भी उसीकी हो सकती है। ३. बड़ेसे बड़ा स्थितिबंध सत्तर कोड़ाकोड़ीका है । उसमें असंख्यात भव होते हैं । फिर वैसेका वैसा क्रम क्रमसे बंध होता जाता है। ऐसे अनंत बंधकी अपेक्षासे अनंत भव कहे जाते हैं; परंतु पूर्वोक्तके अनुसार ही भवका बंध होता है। ___ मोरबी, आषाढ़ वदी १०, शनि, १९५६ . १. विशिष्ट-मुख्यतः-मुख्यतावाचक शब्द है। । . २..ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय ये तीन प्रकृतियाँ उपशमभावमें हो ही नहीं सकती, क्षयोपशमभावमें ही होती हैं। ये प्रकृतियाँ यदि उपशमभावमें हों तो आत्मा जडवत् हो जाता है और क्रिया भी नहीं कर सकता; अथवा तो उससे प्रवर्तन भी नही हो सकता । ज्ञानका काम जानना है, दर्शनका काम देखना है, और वीर्यका काम प्रवर्तन करना है । वीर्य दो प्रकारसे प्रवर्तन कर सकता है-(१) अभिसंधि, (२) अनभिसंधि । अभिसंधि = आत्माकी प्रेरणासे वीर्यका प्रवर्तन होना। अनभिसंधि = कषायसे वीर्यका प्रवर्तन होना। ज्ञानदर्शनमें भल नहीं होती। परन्तु उदयभावमें रहे हुए दर्शनमोहके कारण भूल
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy