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________________ व्याख्यानसार - २ = 3 गणधर = गण-समुदायका धारक; गुणधर गुणका धारक; प्रचुर = बहुत; वृष धर्म; सिरमौर : सिरका मुकुट | - ७९५ १४. अवगाढ = मजबूत । परमावगाढ़ = उत्कृष्टरूप से मजबूत । अवगाह = एक परमाणु प्रदेश . रोकना, व्याप्त होना । श्रावक = ज्ञानीके वचनका श्रोता, ज्ञानीका वचन सुननेवाला । दर्शनं ज्ञानके बिना, क्रिया करते हुए भी, श्रुतज्ञान पढ़ते हुए भी श्रावक या साधु नहीं हो सकता । औदयिक भावसे वह श्रावक, साधु कहा जाता है; पारिणामिक भावसे नहीं कहा जाता । स्थविर = स्थिर, दृढ | १५. स्थविरकल्प = जो साधु वृद्ध हो गये हैं उनके लिये, शास्त्रमर्यादासे वर्तन करनेका, चलनेका ' ज्ञानियों द्वारा मुकर्रर किया हुआ, बाँधा हुआ, निश्चित किया हुआ मार्ग या नियम | १६. जिनकल्प = एकाकी विचरनेवाले साधुओंके लिये निश्चित किया हुआ अर्थात् बाँधा हुआ, • मुकर्रर किया हुआ जिनमार्ग या नियम । २१ मोरवी, आषाढ़ वदी ८, गुरु, १९५६ १. सब धर्मोकी अपेक्षा जैनधर्म उत्कृष्ट दयाप्रणीत है । दयाका स्थापन जैसा उसमें किया गया है. वैसा दूसरे किसीमें नहीं है । 'मार' इस शब्दको ही मार डालनेकी दृढ़ छाप तीर्थंकरोंने आत्मामें मारी है | इस जगहमें उपदेशके वचन भी आत्मामें सर्वोत्कृष्ट असर करते हैं । श्री जिनेन्द्रकी छाती में जीवहसाके परमाणु ही नहीं होंगे ऐसा अहिंसाधर्म श्री जिनेन्द्रका है । जिसमें दया नहीं होती वह जिनेंद्र नहीं होता । जैनके हाथसे खून होनेकी घटनाएँ प्रमाणमें अल्प होगी । जो जैन होता है वह असत्य नहीं बोलता | २. जैनधर्मके सिवाय दूसरे धर्मोकी तुलना में अहिंसा में बौद्धधर्म भी बढ़ जाता है । ब्राह्मणोंकी यज्ञ आदि हिंसक क्रियाओं का नाश भी श्री जिनेन्द्र और बुद्धने किया है, जो अभी तक कायम है । ३. श्री जिनेन्द्र तथा बुद्धने, यज्ञ आदि हिंसक धर्मवाले होनेसे ब्राह्मणों को सख्त शब्दों का प्रयोग करके धिक्कारा है, वह यथार्थ है । ४. ब्राह्मणोंने स्वार्थबुद्धिसे ये हिंसक क्रियाएँ दाखिल की हैं । श्री जिनेन्द्र तथा बुद्धने स्वयं वैभवका त्याग किया था, इसलिये उन्होंने निःस्वार्थवुद्धिसे दयाधर्मका उपदेश करके हिंसक क्रियाओंका विच्छेद किया । जगतके सुखमें उनकी स्पृहा न थी । ५. हिन्दुस्तानके लोग एक बार एक विद्याका अभ्यास इस तरह छोड़ देते हैं कि उसे फिरसे ग्रहण करते हुए उन्हें कंटाला आता है । युरोपियन प्रजामें इससे उलटा है, वे एकदम उसे छोड़ नहीं देते, परन्तु चालू ही रखते हैं । प्रवृत्तिके कारण कम-ज्यादा अभ्यास हो सके, यह बात अलग है । २२ रात में १. वेदनीयकर्मकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्तकी है; उससे कम स्थितिका बंध भी कपाय के विना एक समयका होता है, दूसरे समयमें वेदन होता है और तीसरे समयमें निर्जरा होती है । २. ईर्यापथिकी क्रिया = चलनेकी क्रिया । ३. एक समय में सात अथवा आठ प्रकृतियोंका बंध होता है । प्रत्येक प्रकृति उसका बटवारा किस तरह करती है इस सम्बन्धमें भोजन तथा विपका दृष्टांत :-- जैसे भोजन एक जगह लिया जाता है परंतु उसका रस प्रत्येक इन्द्रियको पहुँचता है, और प्रत्येक इन्द्रिय ही अपनी अपनी शक्तिके अनुसार ग्रहण कर
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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