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________________ श्रीमद राजचन्द्र हों, उसमेंसें वह अस्सीवे वर्ष में अधूरी आयुमें मर जाये तो वाकीके बीस वर्ष कहाँ और किस तरह भोगे जायें ? दूसरे भवमें गति, जाति, स्थिति, संबंध आदि नये सिरेसे होते हैं, इक्यासीवें वर्षसे नहीं होते । इसलिये आयुकी उदयप्रकृति बीचमें नहीं टूट सकती । जिस जिस प्रकारसे बंध पड़ा हो उस उस प्रकार से उदयमें आनेसे किसीको दृष्टिमें कदाचित् आयुका टूटना आये, परंतु ऐसा नहीं हो सकता । १२. जब तक आयुकर्म वर्गणा सत्तामें होती है तब तक संक्रमण, अपकर्ष, उत्कर्ष आदिकरणका नियम लागू हो सकता है; परन्तु उदयका आरंभ होनेके बाद लागू नहीं हो सकता १३. आयुकर्म पृथ्वीके समान है और दूसरे कर्म वृक्षके समान हैं । (यदि पृथ्वी हो तो वृक्ष होता है ।) ७७८ १४. आयुके दो प्रकार हैं-- (१) सोपक्रम और (२) निरुपक्रम । इनमेंसे जिस प्रकारकी आयु बाँधी हो उसी प्रकारकी आयु भोगी जाती है । ``'.१५. उपशमसम्यवत्व क्षयोपशम होकर क्षायिक होता है; क्योंकि उपशममें जो प्रकृतियाँ सत्तामें हैं वे उदयमें आकर क्षोण होती हैं । १६. चक्षुके दो प्रकार हैं- (४) ज्ञानचक्षु और "(२) चर्मचक्षु | जैसे चर्मचक्षुसे एक वस्तु जिस स्वरूप से दिखायी देती हैं वह वस्तु दूरबीन तथा सूक्ष्मदर्शक आदि यन्त्रोंसे भिन्न स्वरूप से ही दिखायी देती है; वैसे चर्मचक्षुसे वह जिस स्वरूप से दिखायी देती है, वह ज्ञानचक्षुसे किसी भिन्न स्वरूपसे ही दिखायी देती है और उसी तरह कही जाती है; उसे हम अपनी चतुराई, अहंत्वसे न मानें यह योग्य नहीं है । ४ - मोरबी, आषाढ सुदी ७, बुध, १९५६ १. श्रीमान कुन्दकुन्दाचार्यने अष्टपाहुड (अष्टप्राभृत) रचा है । प्राभृतभेद - दर्शनप्राभृत, ज्ञानप्राभृत, चारित्रप्राभृत, भावप्राभृत इत्यादि । दर्शनप्राभृत में जिनभावका स्वरूप बताया है । शास्त्रकर्ता कहते हैं कि अन्य भावोंका हमने, आपने और देवाधिदेव तकने पूर्वकालमें भावेन किया है, और उससे कार्य सिद्ध नहीं हुआ; इसलिये जिनभावका भावन करनेकी जरूरत है । जो जिनभाव शांत है, आत्माका धर्म है और उसका भावन करनेसे ही मुक्ति होती है । 2 २. चारित्रप्राभृत । ३. द्रव्य और उसके पर्याय माननेमें नहीं आते; वहाँ विकल्प होनेसे उलझ जाना होता है । पर्यायों को न माननेका कारण, उतने अंश तक नहीं पहुँचना है । ४. द्रव्य पर्याय हैं ऐसा माना जाता है, वहाँ द्रव्यका स्वरूप समझने में विकल्प रहनेसे उलझ जाना होता है, और इसीसे भटकना होता है । ५. सिद्धपद द्रव्य नहीं है, परन्तु आत्माका एक शुद्ध पर्याय है। उससे पहले मनुष्य अथवा देव था, तब वह पर्याय था, यों द्रव्य शाश्वत रहकर पर्यायांतर होता है । ६. शांतता प्राप्त होनेसे ज्ञान बढ़ता है । ७. आत्मसिद्धिके लिये द्वादशांगीका ज्ञान प्राप्त करते हुए बहुत समय चला जाता है; जब कि एक मात्र शांतता का सेवन करने से तुरत प्राप्त होता है । ८. पर्यायका स्वरूप समझानेके लिये श्री तीर्थंकरदेवने त्रिपद ( उत्पाद, व्यय और धीव्य) समझाया है । ९. द्रव्य ध्रुव सनातन है । १०. पर्याय उत्पादव्यययुक्त हैं
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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