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________________ व्याख्यानसार-२ ওওও ..::२. लगभग दो हजार वर्ष पहले जैन यति, शेखरसूरि आचार्यने वैश्योंको क्षत्रियोंके साथ मिलाया। .. १३. 'ओसवाल' 'ओरपाक' जातिके राजपूत हैं। .............. ....... .:: ४: उत्कर्ष, अपकर्ष और संक्रमण ये सत्तामें रही हुई कर्म-प्रकृतिके हो सकते हैं; उदय में आई हुई प्रकृतिके नहीं हो सकते ।.. ... .. ... ... . . . . . . . . : : . . .:.:, ५. आयुकर्मका जिस प्रकारसे बंध होता है उस प्रकारसे देहस्थिति पूर्ण होती है। ६. अंधेरेमें नहीं देखना, यह एकांत. दर्शनावरणीय कर्म नहीं कहा जाता, परन्तु:मंद.दर्शनावरणीय कहा जाता है। तमके निमित्तसे और तेजके अभावके कारण वैसा होता है। . .. ७ दर्शन रुकनेपर ज्ञान रुक जाता है। ८ ज्ञेय जाननेके लिये ज्ञानको बढ़ाना चाहिये । जैसा वजन वैसे बाट। .:, .. ९. जैसे परमाणुकी शक्ति पर्यायको प्राप्त करनेसे बढ़ती जाती है, वैसे ही चैतन्यद्रव्यकी शक्ति विशुद्धताको प्राप्त करनेसे बढती जाती है। काँच, चश्मा, दूरबीन आदि पहले (परमाणु) के प्रमाण हैं, और अवधि, मनःपर्याय, केवलज्ञान, लब्धि, ऋद्धि आदि दूसरे (चैतन्यद्रव्य) के प्रमाण हैं। .. : ... ....... .... ३.... ... ... मोरबी, आषाढ़ सुदी ६, मंगल, १९५६ १. क्षयोपशमसम्यक्त्वको वेदकसम्यक्त्व भी कहा जाता है। परन्तु क्षयोपशममेंसे क्षायिक होनेकी संधिके समयका जो सम्यक्त्व है वह वस्तुतः वेदकसम्यक्त्व है। . .. २. पाँच स्थावर एकेन्द्रिय बादर हैं, तथा सूक्ष्म भी हैं। निगोद वादर और सूक्ष्म है । वनस्पतिके सिवाय बाकीके चारमें असंख्यात सूक्ष्म कहे जाते हैं । निगोद सूक्ष्म अनंत हैं, और वनस्पतिके सूक्ष्म अनंत है; वहाँ निगोदमें सूक्ष्म वनस्पति होती है। ......:: :. :: .... ३. श्री तीर्थंकर ग्यारहवें गुणस्थानकका स्पर्श नहीं करते; इसी तरह वे पहले, दूसरे तथा तीसरेका भी. स्पर्श नहीं करते ।... .. ... ... .. ..: :. ४. वर्धमान, हीयमान और स्थित ऐसी जो परिणामकी तीन धाराएँ हैं, उनमें हीयमान परिणामको धारा सम्यक्त्व-आश्रयी (दर्शन-आश्रयो) श्री तीर्थंकरदेवको नहीं होती, और चारित्रआश्रयी भजना। ५. जहाँ क्षायिकचारित्र है वहाँ मोहनीयका अभाव है; और जहाँ मोहनीयका अभाव है वहाँ पहला, दूसरा, तीसरा और ग्यारहवाँ इन चार गुणस्थानकोंको स्पर्शनाका अभाव है। ६. उदय दो प्रकारका है--एक प्रदेशोदय और दूसरा विपाकोदय । विपाकोदय वाह्य (दीखती हुई) रीतिसे वेदन किया जाता है, और प्रदेशोदय भीतरसे वेदन किया जाता है। . ... . ७. आयुकर्मका बंध प्रकृतिके बिना नहीं होता, परन्तु वेदनीयका होता है। . .... ____८. आयुप्रकृतिका वेदन एक ही भवमें किया जाता है। दूसरी प्रकृतियोंका वेदन उस भव और अन्य भवमें भी किया जाता है। ...: : ९. जीव जिस भवकी आयुप्रकृति भोगता है, वह सारे भवको एक ही बंधप्रकृति है । उस बंधप्रकृतिका उदय आयुके आरंभसे गिना जाता है। इसलिये उस भवकी जो आयुप्रकृति उदय में है उसमें संक्रमण, उत्कर्ष, अपकर्ष आदि नहीं हो सकते। .. १०. आयुकर्मकी प्रकृति दूसरे भवमें नहीं भोगी जाती। ११. गति, जाति, स्थिति, संबंध, अवगाह (शरीरप्रमाण) और रस. इन्हें अमुक जीव अमुक प्रमाणमें भोगे इसका आधार आयुकर्मपर है । जैसे कि एक मनुष्यको नौ वर्षको आयुकर्म प्रकृतिका उदय
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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