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________________ ७७९ व्याख्यानसार-२ ११. छहों दर्शन एक जैनदर्शनमें समाते हैं । उनमें भी जैन एक दर्शन है। बौद्ध-क्षणिकवादीपर्यायरूपसे 'सत्' है। वेदांत--सनातन = द्रव्यरूपसे 'सत्' है । चार्वाक निरीश्वरवादी जब तक आत्माकी प्रतीति नहीं हुई तब तक उसे पहचाननेरूपसे 'सत्' है। - -१२. जीवपर्यायके दो भेद हैं--संसारपर्याय और सिद्धपर्याय । सिद्धपर्याय शत प्रतिशत शुद्ध सुवर्णके समान है और संसारपर्याय खोटसहित सुवर्णके समान है। १३. व्यंजनपर्याय । १४. अर्थपर्याय । १५. विषयका नाश (वेदका अभाव) क्षायिकचारित्रसे होता है । चौथे गुणस्थानकमें विषयकी मंदता होती है, और नौवें गुणस्थानक तक वेदका उदय होता है। . १६. जो गुण अपनेमें नहीं है वह गुण अपने में है, ऐसा जो कहता है अथवा मनवाता है, उसे मिथ्यादृष्टि समझें। : १७. जिन और जैन शब्दका अर्थ "घट घट अन्तर् जिन बसै, घट घट अन्तर जैन। मत मदिराके पानसे, मतवारा समजै न॥" . --समयसार १८. सनातन आत्मधर्म है शांत होना, विराम पाना; सारी द्वादशांगीका सार भी यही है । वह षड्दर्शनमें समा जाता है, और वह षड्दर्शन जैनदर्शनमें समा जाता है। . १९. वीतरागके वचन विषयका विरेचन करानेवाले हैं । २०. जैनधर्मका आशय, दिगम्बर तथा श्वेतांबर आचार्योंका आशय, और द्वादशांगीका आशय मात्र आत्माका सनातन धर्म प्राप्त कराना है, और यही साररूप है । इस बातमें किसी प्रकारसे ज्ञानियोंका विकल्प नहीं है । यही तीनों कालके ज्ञानियों का कथन है, था और होगा; परन्तु वह समझमें नहीं आता यही बड़ी समस्या है। - २१. बाह्य विषयोंसे मुक्त होकर ज्यों ज्यों उसका विचार किया जाये त्यों त्यों आत्मा अविरोधी होता जाता है; निर्मल होता है। २२. भंगजालमें न पड़ें। मात्र आत्माकी शांतिका विचार करना योग्य है। २३. ज्ञानी यद्यपि वणिककी तरह हिसावी (सूक्ष्मरूपसे शोधन कर तत्त्वोंको स्वीकार करनेवाले) होते हैं, तो भी आखिर लोग जैसे लोग (एक सारभूत बातको पकड़ रखनेवाले) होते हैं । अर्थात् अंतमें चाहे जो हो परन्तु एक शांततासे नहीं चूकते; और सारी द्वादशांगीका सार भी यही है। २४. ज्ञानी उदयको जानते हैं, परन्तु वे साता-असातामें परिणमित नहीं होते। २५. इंद्रियोंके भोगसहित मुक्ति नहीं है । जहाँ इंद्रियोंका भोग है वहाँ संसार है; और जहाँ संसार है वहाँ मोक्ष नहीं है। २६. वारहवें गुणस्थानक तक ज्ञानीका आश्रय लेना है, ज्ञानीकी आज्ञासे वर्तन करना है। २७. महान आचार्यों और ज्ञानियोंमें दोष तथा भूलें नहीं होती। अपनी समझमें न आनेसे हम भूल मानते हैं। हमारेमें ऐसा ज्ञान नहीं है कि जिससे अपनी समझमें आ जाये । इसलिये वैसा ज्ञान प्राप्त होनेपर जो ज्ञानीका आशय भूलवाला लगता है, वह समझ में आ जायेगा, ऐसी भावना रखें। परसार १. भावार्य-प्रत्येक हृदयमें जिनराज और जैनधर्मका निवास है, परंतु सम्प्रदाय-मदिराके पानसे मतवाले लोग नहीं समझते।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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