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________________ व्याख्यानसार-१ ७७१ १९३, तीर्थंकर जैसे भी संसारपक्षमें विशेष - विशेष समृद्धि के स्वामी थे, फिर भी उन्हें भी त्याग" करनेकी, जरूरत पड़ी थी, तो फिर अन्य जीवोंको वैसा किये बिना छुटकारा नहीं है । A • १९४. त्यागके दो प्रकार हैं :- एक बाह्य और दूसरा अभ्यंतर । इसमेंसे बाह्य त्याग अभ्यंतर त्यागका सहकारी है | त्यागके साथ वैराग्य जोड़ा जाता है, क्योंकि वैराग्य होनेपर ही त्याग होता है । १९५. जीव ऐसा मानता है कि 'मैं कुछ समझता हूँ, और जब मैं त्याग करना चाहूँगा तब एकदम त्याग कर सकूँगा', परन्तु यह मानना भूलभरा होता है । जव तक ऐसा प्रसंग नहीं आया तब तक अपना जोर रहता है । जब ऐसा समय आता है तब शिथिल - परिणामी होकर मंद पड़ जाता है । इसलिये धीरे धीरे जीव जाँच करें और त्यागका परिचय करने लगे, जिससे मालूम हो कि त्याग करते समय परिणाम कैसे शिथिल हो जाते हैं ? १९६. आँख, जीभ आदि इंद्रियोंकी एक एक अंगुल जितनी जगहको जीतना भी जिसके लिये मुश्किल हो जाता है, अथवा जीतना असंभव हो जाता है; उसे बड़ा पराक्रम करनेका अथवा बड़ा क्षेत्र जीतनेका काम सौंपा हो तो वह किस तरह बन सकता है ? 'एकदम त्याग करनेका समय आये, तबकी बात तब ', इस विचारकी ओर ध्यान रखकर अभी तो धीरे धीरे त्यागकी कसरत करनेकी जरूरत है । उसमें भी शरीर और शरीरके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सगे-सम्बन्धियोंके बारेमें पहले आजमाइश करनी है; और शरीरमें भी पहले आँख, जीभ और उपस्थ इन तीन इंद्रियोंके विषयको देश-देशसे त्याग करनेकी तरफ लगाना है, और इसके अभ्याससे एकदम त्याग सुगम हो जाता है । 2010 १९७. अभी जाँच के तौरपर अंश अंशसे, जितना जितना त्याग करना है उसमें भी शिथिलता नहीं रखना, तथा रूढिका अनुसरण करके त्याग करनेकी बात भी नहीं है । जो कुछ त्याग करना वह शिथिलतारहित तथा छूट - छाटरहित करना, अथवा छूट छाट रखने की जरूरत हो तो वह भी निश्चितरूपसे खुले तौरसे रखना, परन्तु ऐसी न रखना कि उसका अर्थ जिस समय जैसा करना हो वैसा हो सके। जब जिसकी जरूरत पड़े तब उसका इच्छानुसार अर्थ हो सके ऐसी व्यवस्था ही त्यागमें नहीं रखना । यदि ऐसी व्यवस्था की जाय कि अनिश्चितरूपसे अर्थात् जब जरूरत पड़े तब मनमाना अर्थ हो सके, तो जीव शिथिल- परिणामी होकर त्याग किया हुआ सब कुछ बिगाड़ डालता है । १९८. यदि अंशसे भी त्याग करें तो पहलेसे ही उसकी मर्यादा निश्चित करके और साक्षी रखकर त्याग करें, तथा त्याग करनेके बाद अपना मनमाना अर्थ न करें । १९९. संसारमें परिभ्रमण करानेवाले क्रोध, मान, माया और लोभकी चौकड़ीरूप कपाय है, उसका स्वरूप भी समझने योग्य है । उसमें भी जो अनंतानुबंधी कषाय है वह अनंत संसार में भटकानेवाला है । उस कषायं के क्षय होने का क्रम सामान्यतः इस तरह है कि पहले क्रोधका और फिर क्रमसे मान, माया और लोभका क्षय होता है, और उसके उदय होनेका क्रम सामान्यतः इस तरह है कि पहले मान और फिर क्रमसे, लोभ, माया और क्रोधका उदय होता है । २००. इस कपायके असंख्यात भेद हैं। जिस रूपमें कपाय होता है उस रूपमें जीव संसार-परिभ्रमणके लिये कर्मबंध करता है । कषायमें बड़ेसे बड़ा बंध अनंतानुबंधी कपायका है। जो अंतर्मुहूर्त में चालीस कोड़ाकोडी सागरोपमका बंध करता है, उस अनंतानुबंधोका स्वरूप भी जबरदस्त है । वह इस तरहकी मिथ्यात्वमोहरूपी एक राजाको भलीभांति हिफाजत से सैन्यके मध्यभागमें रखकर क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार उसकी रक्षा करते हैं, और जिस समय जिसकी जरूरत होती है उस समय वह
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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