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________________ ওই श्रीमद् राजचन्द्र विना बुलाये मिथ्यात्वमोहकी सेवामें लग जाता है। इसके अतिरिक्त नोकवायरूप दूसरा परिवार है वह कपायके अग्रभागमें रहकर मिथ्यात्वमोहकी रखवाली करता है, परन्तु ये दूसरे सब चौकीदार नहीं-जैसे कपायका काम करते हैं। भटकानेवाला तो कषाय है । और उस कषायमें भी अनंतानुवंधी कषायके चार योद्धा बहुत ही मार डालते हैं। इन चार योद्धाओंमेंसे क्रोधका स्वभाव दूसरे तीनकी अपेक्षा कुछ भोला मालूम, पड़ता है; क्योंकि उसका स्वरूप सबकी अपेक्षा जल्दी मालूम हो सकता है। इस तरह जब जिसका स्वरूप जल्दो मालूम हो जाये तब उसके साथ लड़ाई करने में क्रोधीकी प्रतीति हो जानेसे लड़नेकी हिम्मत आती है। २०१. घनघाती चार कर्म-मोहनीय; ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय; जो आत्माके गुणोंको आवरण करनेवाले हैं । उनका एक प्रकारसे क्षय करना सरल भी है । वेदनीय आदि कर्म जो घन: घाती नहीं हैं तो भी उनका एक प्रकारसे क्षय करना कठिन है। वह इस तरह कि.वेदनीय आदि कर्मका उदय प्राप्त हो तो उनका क्षय करनेके लिये उन्हें भोगना चाहिये; उन्हें न भोगनेकी इच्छा हो तो भी. वहाँ वह काम नहीं आती, भोगने ही चाहिये; और ज्ञानावरणीयका उदय हो तो यत्न करनेसे उसका क्षय हो जाता है। उदाहरणरूपमें, कोई श्लोक ज्ञानावरणीयके उदयसे याद न रहता हो तो उसे दो, चार, आठ, सोलह, बत्तीस, चौसठ, सौ अर्थात् अधिक बार रटनेसे ज्ञानावरणीयका क्षयोपशम अथवा क्षय होकर याद रहता है; अर्थात् बलवान हो जानेसे उसका उसी भवमें अमुक अंशमें क्षय किया जा सकता है। इसी तरह दर्शनावरणीय कर्मके सम्बन्धमें समझें। मोहनीयकर्म जो महा बलशाली एवं भोला भी है, वह तुरत क्षय किया जा सकता है। जैसे उसका आना, आनेका वेग प्रबल है, वैसे वह जल्दीसे दूर भी हो सकता है। मोहनीयकर्मका तीन बंध होता है, तो भी वह प्रदेशबंध न होनेसे तुरत. क्षय किया जा सकता है। नाम, आयु आदि कर्म जिनका प्रदेशबंध होता है वे केवलज्ञानं उत्पन्न होनेके बाद भी अंत तक भोगने पड़ते हैं; जब कि मोहनीय आदि चार कर्म उससे पहले ही क्षीण हो जाते हैं। ___२०२. 'उन्माद' यह चारित्रमोहनीयका विशेष पर्याय हैं। वह क्वचित् हास्य, क्वचित् शोक, क्वचित् रति, क्वचित् अरति, क्वचित् भय, और क्वचित् जुगुप्सारूपसे दिखायी देता है। कुछ अंशसे उसका ज्ञानावरणीयमें भी समावेश होता है । स्वप्नमें विशेषरूपसे ज्ञानावरणीयके पर्याय मालूम होते हैं। ...... २०३. 'संज्ञा' यह ज्ञानका भाग है। परन्तु 'परिग्रहसंज्ञा'का 'लोभप्रकृति' में समावेश होता है; 'मैथुनसंज्ञा'का वेदप्रकृतिमें समावेश होता है; 'आहारसंज्ञा'का वेदनीयमें समावेश होता है; और 'भयसंज्ञा'का भयप्रकृतिमें समावेश होता है। :: . . . . . . . . . . . . . २०४. अनंत प्रकारके कर्म मुख्य आठ प्रकारसे और उत्तर एक सौ अट्ठावन प्रकारसे 'प्रकृति'के नामसे पहचाने जाते हैं। वह इस तरह कि अमुक अमुक प्रकृति अमुक अमुक गुणस्थानक तक होती है। इस तरह मापतोल कर ज्ञानीदेवने दूसरोंको समझानेके लिये स्थूल स्वरूपसे उसका विवेचन किया है। उसमें दूसरे कितने ही तरहके कर्म अर्थात् 'कर्मप्रकृति' का समावेश होता है। अर्थात् जिस जिस प्रकृतिके नाम कर्मग्रंथमें नहीं आते वे सब प्रकृतियाँ उपर्युक्त प्रकृतिके विशेष पर्याय है अथवा वे उपर्युक्त प्रकृतिमें समा जाते हैं। .. . . . .. . ..... २०५. 'विभाव' अर्थात् 'विरुद्धभाव' नहीं, परन्तु 'विशेषभाव' | - आत्मा आत्मारूपसे परिणमित हो वह 'भाव' है अथवा 'स्वभाव' है। जव आत्मा और जड़का संयोग होनेसे आत्मा स्वभावसे आगे जाकर 'विशेषभाव' से परिणमित हो, वह 'विभाव' है। इसी तरह जड़के वारेमें भी समझें। ..
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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