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________________ ७७०. श्रीमत् राजचन्द्र - हैं कि उनका वारंवार विचार करनेसे उनका स्वरूप समझमें आता है, और उस तरह समझमें आनेसे उनसे सूक्ष्म अरूपी ऐसे आत्मा संबंधी जाननेका काम सरल हो जाता है। '... १८०. मान और मताग्रह ये मार्गप्राप्तिमें अवरोधक स्तम्भरूप हैं। उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता, और इसलिये मार्ग समझमें नहीं आता। समझनेमें विनय-भक्तिकी प्रथम जरूरत है। वह भक्ति मान, मताग्रहके कारण अपनायी नहीं जा सकती। ...... १८१. ( १ ) वाचना, ( २ ) पृच्छना, ( ३ ) परावर्तना, ( ४ ) चित्तको निश्चयमें लाना, ( ५ ) धर्मकथा । वेदान्तमें भी श्रवण, मनन और निदिध्यासन । ये भेद बताएँ हैं। ___ १८२. उत्तराध्ययनमें धर्मके मुख्य चार अंग कहें हैं :-( १ ) मनुष्यता, ( २.) सत्पुरुषके वचनोंका श्रवण, ( ३ ) उनकी प्रतीति, (४) धर्म में प्रवर्तनं करना । ये चार वस्तुएँ दुर्लभ हैं। . १८३. मिथ्यात्वके दो भेद हैं-( १ ) व्यक्त, ( २ ) अव्यक्त । उसके तीन भेद भी किये हैं- (१) उत्कृष्ट, ( २ ) मध्यम, (३) जघन्य | जब तक मिथ्यात्व होता है तब तक जीव पहले गुणस्थानकसे बाहर नहीं निकलता। तथा जब तक उत्कृष्ट मिथ्यात्व होता है तब तक वह मिथ्यात्व गुणस्थानक नहीं माना जाता । गुणस्थानक जीवाश्रयी है। . .. १८४. मिथ्यात्व द्वारा मिथ्यात्व मंद पड़ता हैं, और इसलिये वह जरा आगे चला कि तुरत वह मिथ्यात्व गुणस्थानकमें आता है। ... १८५. गुणस्थानक यह आत्माके गुणको लेकर होता है । . .. ... १८६. मिथ्यात्वमें से जीव सम्पूर्ण न निकला हो परन्तु थोड़ा निकला हो तो भी उससे मिथ्यात्व मंद पड़ता है। यह मिथ्यात्व भी मिथ्यात्वसे मंद होता है । मिथ्यात्व गुणस्थानकमें भी मिथ्यात्वका अंश कषाय हो, उस अंशसे भी मिथ्यात्वमेंसे मिथ्यात्व गुणस्थानक कहा जाता है। .............. १८७. प्रयोजनभूत ज्ञानके मूलमें, पूर्ण प्रतीतिमें, वैसे ही आकारमें मिलते-जुलते अन्य मार्गको समानताके अंशसे समानतारूप प्रतीति होना मिश्रगुणस्थानक है। परंतु अमुक दर्शन सत्य है, और अमुक दर्शन भी सत्य है, ऐसी दोनोंपर एकसी प्रतीति होना मिश्र नहीं. परंतु मिथ्यात्वगुणस्थानक है.। अमुक दर्शनसे अमुक दर्शन अमुक अंशमें मिलता जुलता है, ऐसा कहनेमें सम्यक्त्वको बाधा नहीं आती; क्योंकि वहाँ तो अमुक दर्शनकी दूसरे दर्शनके साथ समानता करने में पहला दर्शन सम्पूर्णरूपसे प्रतीतिरूप होता है.। .. . .. १८८. पहले गुणस्थानकसे दूसरेमें नहीं जाया जाता, परन्तु चौथेसे वापस लौटते हुए पहलेमें आनेके बीचका अमुक काल दूसरा गुणस्थानक है.। उसे यदि चौथेके बाद. पांचवा.माना जाये तो चौथेसे पाँचवाँ ऊँचा ठहरता है और यहाँ तो. सास्वादन चौथेसे पतित हुआ . माना गया है, अर्थात् वह नीचा है इसलिये पाँचवाँ नहीं कहा जा सकता परन्तु दूसरा कहना ठीक है.।. , ..:..: ... १८९. आवरण है यह बात निःसंदेह है, जिसे श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों कहते हैं; परन्तु आवरणको साथ लेकर कहने में एक दूसरेसे थोड़ा भेदवाला है। १९०. दिगम्बर कहते हैं कि केवलज्ञान सत्तारूपसे नहीं परन्तु शक्तिरूपसे है। . १९१. यद्यपि सत्ता और शक्तिका सामान्य अर्थ एक है, परन्तु विशेषार्थकी दृष्टि से कुछ फ़र्क है। "... .१९२. दृढतापूर्वक ओघ आस्थासे, विचारपूर्वक अभ्याससे 'विचारसंहित आस्था' होती है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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