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________________ व्याख्यानसार-१ . ७६९. १७३. उपदेशके मुख्य चार प्रकार हैं-(१) द्रव्यानुयोग, (२.) चरणानुयोग; (३ ) गणितानुयोग, (४) धर्मकथानुयोग। .. .. .. .. .. ... .. . ....(१) लोकमें रहनेवाले द्रव्य, उनका स्वरूप, उनका गुण, धर्म, हेतु, अहेतु, पर्याय आदि अनंतानंत प्रकारके है, उनका जिसमें वर्णन है वह द्रव्यानुयोग' है। ... .. ..... . (२) इस द्रव्यानुयोगका स्वरूप समझमें आनेके बाद, आचरण संबंधी वर्णन जिसमें है वहः 'चरणानुयोग' है।... (३) द्रव्यानुयोग तथा चरणानुयोगकी गिनतीके प्रमाण, तथा लोकमें रहनेवाले पदार्थ, भाव, क्षेत्र, काल आदिकी गिनतीके प्रमाणका जो वर्णन है वह 'गणितानुयोग' है। (४) सत्पुरुषोंके धर्मचरित्रोंकी कथाएं, जिनका बोध लेनेसे वें गिरनेवाले जीवको अवलंबनभत सिद्ध होती हैं, वह 'धर्मकथानुयोग' है। ', ' . . :: - १७४. परमाणुमें रहनेवाले गुण, स्वभाव आदि स्थिर रहते हैं, और पर्याय बदलते हैं। दृष्टांतरूपमें :--पानीमें रहनेवाला शीत-गुण नहीं बदलता, परन्तु पानीमें जो तरंगें उठती हैं वे बदलती हैं अर्थात् वे एकके बाद एक उठकर उसमें समा जाती हैं । इस प्रकार पर्याय, अवस्था अवस्थांतर हुआ करते हैं। इससे पानी में रहनेवाली शीतलता अथवा पानीपन नहीं बदलते, परन्तु स्थिर रहते हैं; और पर्यायरूप तरंगें बदलती रहती हैं। इसी तरह उस गुणकी हानिवृद्धिरूप परिवर्तन भी पर्याय है। उसके विचारसे प्रतीति, प्रतीतिसे त्याग और त्यागसे ज्ञान होता है। १७५. तेजस और कार्मण शरीर स्थूलदेहप्रमाण हैं। तेजस शरीर गरमी करता है, तथा आहारको पचानेका काम करता है। शरीरके अमुक अमुक अंग घिसनेसे गरम मालूम होते हैं, वे तेजसके कारणसे मालूम होते हैं। सिरपर घृत आदि रखकर उस (तेजस) शरीरकी परीक्षा करनेकी जो रूढि है, उसका अर्थ यह है कि वह शरीर स्थूल शरीरमें है या नहीं? अर्थात् स्थूल शरीरमें जीवकी भांति वह सारे शरीरमें रहता है। ..... -.. १७६. इसी तरह कार्मण शरीरं भी है, जो तेजसकी अपेक्षा सूक्ष्म है । वह भी तेजसकी तरह रहता है। स्थूल शरीरमें पीड़ा होती है, अथवा क्रोध आदि होते हैं, वही कार्मण शरीर है। कार्मणसे क्रोध आदि होकर तेजोलेश्या आदि उत्पन्न होते हैं। वेदनाका अनुभव जीव करता है, परन्तु वेदना कार्मण शरीरके कारण होती है। कार्मण शरीर जीवका अवलंबन है। .......... ....... १७७: उपर्युक्त चार अनुयोगों तथा उनके सूक्ष्म भावोंका. स्वरूप जीवके लिये वारंवार विचारणीय है, ज्ञेय है। वह परिणाममें निर्जराका हेतु होता है, अथवा उससे निर्जरा होती है। चित्तको स्थिरता करनेके लिये. यह सब कहा गया है; क्योंकि इस सूक्ष्मसे सूक्ष्म स्वरूपको यदि जीवने कुछ जाना हो तो उसके लिये वारंवार विचार करना होता है, और वैसे विषारसे जीवकी वाह्यवृत्ति न होकर, वह विचार करने तक अन्दरकी अन्दर ही समायी रहती है। ... ..... . .. ... .. १७८. अंतरविचारका साधन न हो तो :जीवकी वृत्ति बाह्य वस्तुपर जाकर अनेक प्रकारकी योजनाएं की जाती हैं। जीवको आलंबनकी जरूरत है। उसे खाली बैठे रहना ठीक नहीं लगता । उसे ऐसी ही आदत पड़ गयी है; इसलिये यदि उक्त पदार्थोंका ज्ञान हुआ हो तो उसके विचारके कारण सत. चित्वृत्ति बाहर जानेके बदले भीतर समायो रहती है, और ऐसा होनेसे निर्जरा होती है। १७९. पुद्गल, परमाणु और उसके पर्याय आदिको सुक्ष्मता है, वह जितनी वाणीगोचर हो सकती है उतनी कही गयी है। वह इसलिये कि ये पदार्थ मूर्त हैं, अमूर्त नहीं है। मूर्त होनेपर भी इतने सूक्ष्म
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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