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________________ व्याल्यानसार-१ ७५९ में अनंतता घटित होती है। कंदमूलके अमुक थोड़े भागको यदि बोया जाये तो वह उगता है; इस कारणसे भी उसमें जीवोंकी अधिकता घटित होती है; तथापि यदि प्रतीति न होती हो तो आत्मानुभव करें; आत्मानुभव होनेसे प्रतीति होती है। जब तक आत्मानुभव नहीं होता, तब तक उस प्रतीतिका होना मुश्किल है, इसलिये यदि उसकी प्रतीति करनी हो तो पहले आत्माके अनुभवी बनें। ८५. जब तक ज्ञानावरणीयका क्षयोपशम नहीं हुआ, तब तक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेकी इच्छा रखनेवाला उसकी प्रतीति रखकर आज्ञानुसार वर्तन करे । ... ८६. जीवमें संकोच-विस्तारकी शक्तिरूप गुण रहता है, इस कारणसे वह छोटे-बड़े शरीरमें देहप्रमाण स्थिति करके रहता है। इसी कारणसे जहाँ थोड़े अवकाशमें भी वह विशेषरूपसे संकोच कर सकता है वहाँ जीव वैसा करके रहे हुए हैं। ८७. ज्यों ज्यों जीव कर्मपुद्गल अधिक ग्रहण करता है, त्यों त्यों वह अधिक निविड़ होकर छोटे देहमें रहता है। . ८८. पदार्थमें अचिंत्य शक्ति है। प्रत्येक पदार्थ अपने अपने धर्मका त्याग नहीं करता । एक जीवके द्वारा परमाणुरूपसे ग्रहण किये हुए कर्म अनंत हैं। ऐसे अनंत जीव, जिनके पास कर्मरूपी परमाणु अनंतानंत है, वे सब निगोदाश्रयी थोड़े अवकाशमें रहे हुए हैं, यह बात भी शंका करने योग्य नहीं है। साधारण गिनतीके अनुसार एक परमाणु एक आकाशप्रदेशका अवगाहन करता है, परंतु उसमें अचित्य सामर्थ्य है, उस सामर्थ्यधर्मसे थोड़े आकाशमें अनंत परमाणु रहते हैं। जैसे किसी दर्पणके सन्मुख उससे बहुत बड़ी वस्तु रखी जाये तो भी उतना आकार उसमें समा जाता है। पाँख एक छोटी वस्तु है, फिर भी उस छोटीसी वस्तुमें सूर्य, चन्द्र आदि बड़े पदार्थोंका स्वरूप दिखाई देता है। उसी तरह आकाश जो बहत बड़ा क्षेत्र है वह भी आँखमें दृश्यरूपसे समा जाता है। तथा आँख जैसी छोटीसी वस्तु बड़े बड़े बहतसे घरोंको भी देख सकती है। यदि थोड़े आकाशमें अनंत परमाणु अचित्य सामथ्र्यके कारण न समा सकते हों तो फिर आँखसे अपने आकार जितनी वस्तु ही देखी जा सकती है, परन्तु अधिक बड़ा भाग देखा नहीं जा सकता; अथवा दर्पणमें अनेक घर आदि बड़ी वस्तुओंका प्रतिक्वि नहीं पड़ सकता। इसी कारणसे परमाणुका भी अचिंत्य सामर्थ्य है और उसके कारण थोड़े आकाशमें अनंत परमाणु समा कर रह सकते हैं। . .. ८९. इस तरह परमाणु आदि द्रव्योंका सूक्ष्मभावसे निरूपण किया गया है, वह यद्यपि परभावका विवेचन है, तो भी वह सकारण हैं, और सहेतु किया गया है। ' ९०. चित्त स्थिर करनेके लिये, अथवा वृत्तिको बाहर न जाने देकर अंतरंगमें ले जानेके लिये परदव्यके स्वरूपका समझना काम आता है। ' ९१. परद्रव्यके स्वरूपका विचार करनेसे वृत्ति वाहर न जाकर अंतरंगमें रहती है, और स्वरूप समझनेके वाद उससे प्राप्त हुए' ज्ञानसे वह उसका विषय हो जानेसे, अथवा अमुक अंशमें समझनेसे उतना उसका विषय हो रहनेसे, वृत्ति सीधी बाहर निकलकर परपदा में रमण करनेके लिये दौड़ती है; तव परद्रव्य कि जिसका ज्ञान हुआ है उसे सूक्ष्मभावसे फिरसे समझने लगनेसे वृत्तिको फिर अंतरंगमें लाना पड़ता है। और इस तरह उसे अंतरंगमें लानेके बाद विशेपरूपसे स्वरूप समझमें आनेसे ज्ञानसे उतना उसका विषय हो रहनेसे फिर वृत्ति बाहर दौड़ने लगती है; तब जितना समझा हो उससे विशेष सुक्ष्मभावसे पुनः विचार करते. लगनेसे वत्ति फिर अंतरंगमें प्रेरित होती है। यों करते करते वृत्तिको वारंवार अंत
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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