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________________ ७५८ श्रीमद् राजचन्द्र ७६ क्षेत्रसमास'में क्षेत्रसंबंध आदिकी जो जो बातें हैं, उन्हें अनुमानसे मानना है। उनमें अनुभव नहीं होता; परन्तु उन सबका वर्णन कुछ कारणोंसे किया जाता है । उनकी श्रद्धा विश्वासपूर्वक रखना है। मूल श्रद्धामें अंतर हो जानेसे आगे समझनेमें अन्त तक भूल चली आती है। जैसे गणितमें पहले भूल हो गयी तो फिर वह भूल अंत तक चलो आती है वैसे। . ७७. ज्ञान पाँच प्रकारका है । वह ज्ञान यदि सम्यक्त्वके बिना मिथ्यात्वसहित हो तो 'मति अज्ञान', 'श्रुत अज्ञान' और 'अवधि अज्ञान' कहा जाता है। उन्हें मिलाकर ज्ञानके कुल आठ प्रकार है। . ७८. मति, श्रुत और अवधि मिथ्यात्वसहित हों तो वे 'अज्ञान' हैं, और सम्यक्त्वसहित हों तो 'ज्ञान' हैं । इसके सिवाय और अन्तर नहीं है। ७९. जीव रागादि सहित कुछ भी प्रवृत्ति करे तो उसका नाम 'कर्म' है, शुभ अथवा अशुभ अध्यवसायवाला परिणमन 'कर्म' कहा जाता है; और शुद्ध अध्यवसायवाला परिणमन कर्म नहीं परन्तु निर्जरा' हैं। ८०. अमुक आचार्य यों कहते हैं कि दिगम्बर आचार्यने ऐसा माना है कि "जीवका मोक्ष नहीं होता, परन्तु मोक्ष समझमें आता है। वह इस तरह कि जीव शुद्ध स्वरूपवाला है, उसे बंध ही नहीं हुआ तो फिर मोक्ष होनेका प्रश्न ही कहाँ है ? परन्तु उसने यह मान रखा है, कि 'मैं बँधा हुआ हूँ', यह मान्यता विचार द्वारा समझमें आती है कि मुझे बंधन नहीं है, मात्र मान लिया था; वह मान्यता शुद्ध स्वरूप समझमें आनेसे नहीं रहती; अर्थात् मोक्ष समझमें आ जाता है।" यह बात 'शुद्धनय' अथवा. 'निश्चयनय'की है। पर्यायार्थिक नयवाले इस नयको पकड़ कर आचरण करें तो उन्हें भटक भटक कर मरना है। ८१. ठाणांगसूत्रमें कहा गया है कि जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये पदार्थ सद्भाव है, अर्थात् इनका अस्तित्व विद्यमान हैं; कल्पित किये गये हैं ऐसा नहीं है। - ८२. वेदान्त शुद्धनयाभासी है। शुद्धनयाभासमतवाले 'निश्चयनय' के सिवाय दूसरे नयको अर्थात् 'व्यवहारनय' को ग्रहण नहीं करते । जिनदर्शन अनेकांतिक हैं, अर्थात् वह स्याद्वादी है। । ..८३. कोई नव तत्त्वकी, कोई सात तत्त्वकी, कोई षड्द्रव्यकी, कोई षट् पदकी, कोई दो राशिकी बात करते हैं; परन्तु यह सब जीव, अजीव ऐसी दो राशि अथवा ये दो तत्त्व अर्थात् द्रव्यमें समा जाते हैं । . ८४. निगोदमें अनंत जीव रहे हुए हैं, इस बातमें और कंदमूलमें सूईकी नोक जितने. सूक्ष्म भागमें अनंत जीव रहे हैं, इस बातमें आशंका करने जैसा नहीं है | ज्ञानीने जैसा स्वरूप देखा है वैसा ही कहा है। यह जीव जो स्थूल देहप्रमाण हो रहा है और जिसे अपने स्वरूपका.: अभी, ज्ञान नहीं हुआ उसे ऐसी सूक्ष्म बात समझमें नहीं आती यह बात सच्ची है; परन्तु उसके लिये आशंका करनेका कारण नहीं है। वह इस तरह : चौमासेके समय किसी गाँवके सीमांतकी जाँच करें तो बहुतसी हरी वनस्पति दिखाई देती है, और उस थोड़ी हरी वनस्पतिमें अनंत जीव हैं, तो फिर ऐसे अनेक गाँवोंका विचार करें, तो जीवोंको संख्याके परिमाणका अनुभव न होनेपर भी, उसका बुद्धिबलसे विचार करनेसे अनंतताकी सम्भावना हो सकती है। कंदमूल आदिमें अनंतताका सम्भव है । दूसरो हरी वनस्पतिमें अनंतताका सम्भव नहीं है; परन्तु कंदमूल
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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