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________________ व्याख्यानसार-१ ७५७ ६७. सम्यक्त्व केवलज्ञानसे कहता है :-' -'मैं इतना कार्य कर सकता हूँ कि जीवको मोक्षमें पहुँचा दूँ, और तू भी यही कार्य करता है, तू उससे कुछ विशेष कार्य नहीं कर सकता; तो फिर तेरी अपेक्षा मुझमें न्यूनता किस बातको ? इतना ही नहीं अपितु तुझे प्राप्त करनेमें मेरी जरूरत रहती है ।' ६८. ग्रंथ आदिका पढ़ना शुरू करनेसे पहले प्रथम मंगलाचरण करें, और उस ग्रंथको फिरसे पढ़ते हुए अथवा चाहे जिस भागसे उसका पढ़ना शुरू करनेसे पहले मंगलाचरण करें, ऐसी शास्त्रपद्धति है । इसका मुख्य कारण यह है कि बाह्यवृत्तिसे आत्मवृत्तिको ओर अभिमुख होना है, अतः वैसा करनेके लिये पहले शांति लानेकी जरूरत है, और तदनुसार प्रथम मंगलाचरण करनेसे शांति आती है । पढ़नेका जो अनुक्रम हो उसे यथासंभव कभी नहीं तोड़ना चाहिये । इसमें ज्ञानीका दृष्टांत लेनेकी जरूरत नहीं है । ६९. आत्मानुभवगम्य अथवा आत्मजनित सुख और मोक्षसुख दोनों एक ही हैं । मात्र शब्द भिन्न हैं । ७०. केवलज्ञानी शरीर के कारण केवलज्ञानी नहीं कहे जाते कि दूसरोंके शरीर की अपेक्षा उनका शरीर विशेषतावाला देखने में आये । और फिर वह केवलज्ञान शरीरसे उत्पन्न हुआ है ऐसा भी नहीं है; वह तो आत्मा द्वारा प्रगट किया गया है; इस कारण उसकी शरीरसे विशेषता समझने का कोई हेतु नहीं है, और विशेषतावाला शरीर लोगोंके देखनेमें नहीं आता इसलिये लोग उसका माहात्म्य बहुत नहीं जान सकते। ७१. जो जीव मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानको अंशसे भी नहीं जानता वह केवलज्ञानके स्वरूपको जानना चाहे तो यह किस तरह हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । ७२. मति स्फुरायमान होकर जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह 'मतिज्ञान' है; और श्रवण होनेसे जो ज्ञान उत्पन्न होता हैं वह 'श्रुतज्ञान' है, और उस श्रुतज्ञानका मनन होकर परिणमित होता है तो फिर वह मतिज्ञान हो जाता है, अथवा उस श्रुतज्ञानके परिणमित होनेके बाद दूसरेको कहा जाये तब वही कहनेवालेमें मतिज्ञान और सुननेवालेके लिये श्रुतज्ञान होता है; तथा श्रुतज्ञान मति के बिना नहीं हो सकता और वही मतिज्ञान पूर्वमें श्रुतज्ञान होना चाहिये । इस तरह एक दूसरेका कार्यकारण संबंध है । उनके अनेक भेद हैं, उन सब भेदोंको जैसे चाहिये वैसे हेतुसहित नहीं जाना है । हेतुसहित जानना, समझना दुष्कर है । और उसके बाद आगे बढ़नेसे अवधिज्ञान आता है, जिसके भी अनेक भेद हैं, और सभी रूपी पदार्थोंको जानना जिसका विषय है । उसे, और तदनुसार ही मनःपर्यायका विषय है, उन सबको किसी अंशमें भी जानने-समझने की जिन्हें शक्ति नहीं है वे मनुष्य, पर और अरूपी पदार्थों के समस्त भावों को जाननेवाले ‘केवलज्ञान’के विषय में जानने-समझने के लिये प्रश्न करें तो वे किस तरह समझ सकते हैं ? अर्थात् नहीं समझ सकते । "i ७३. ज्ञानीके मार्गमें चलनेवालेको कर्मबंध नहीं है, तथा उस ज्ञानीकी आज्ञाके अनुसार चलनेवालेको भी कर्मबंध नहीं हैं, क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ आदिका वहाँ अभाव है; और उस अभाव के कारण कर्मबंध नहीं होता । तो भी 'ईरियापथ' में चलते हुए 'ईरियापथ' की क्रिया ज्ञानीको लगती है, और ज्ञानी आज्ञा अनुसार चलनेवालेको भो वह क्रिया लगती है । ७४. जिस विद्यासे जोव कर्म बाँधता है उसी विद्यासे जीव कर्म छोड़ता है । ७५. उसी विद्यासे सांसारिक हेतुके प्रयोजनसे विचार करनेसे जीव कर्मबंध करता है, और उसी विद्यासे द्रव्यका स्वरूप समझने के प्रयोजनसे विचार करता है तो कर्म छोड़ता है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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