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________________ ७५६ श्रीमद् राजचन्द्र ६१. सम्यक्त्वके लक्षण (१) कषायकी मंदता अथवा उसके रसकी मंदता । (२) मोक्षमार्गकी ओर वृत्ति । (३) संसारका बंधनरूप लगना अथवा संसार विषतुल्य लगना । (४) सब प्राणियोंपर दयाभाव; उसमें विशेषतः अपने आत्माके प्रति दयाभाव । . (५) सदेव, सद्धर्म और सद्गुरुपर आस्था। ६२. आत्मज्ञान अथवा आत्मासे भिन्न कर्मस्वरूप, अथवा पुद्गलास्तिकाय आदिका, भिन्न भिन्न प्रकारसे भिन्न भिन्न प्रसंगमें, अति सूक्ष्मसे सूक्ष्म और अति विस्तृत जो स्वरूप ज्ञानी द्वारा कहा हुआ है, उसमें कोई हेतु समाता है या नहीं ? और यदि समाता है तो क्या ? इस विषयमें विचार करनेसे उसमें सात कारण समाये हुए मालूम होते हैं-सद्भूतार्थप्रकाश, उसका विचार, उसकी प्रतीति, जीवसंरक्षण इत्यादि । इन सातों हेतुओंका फल मोक्षकी प्राप्ति होना है। तथा मोक्षकी प्राप्तिका जो मार्ग है वह इन हेतुओंसे सुप्रतीत होता है। ६३. कर्म अनंत प्रकारके हैं। उनमें मुख्य १५८ हैं। उनमें मुख्य आठ कर्म प्रकृतियोंका वर्णन किया गया है। इन सब कर्मोमें मुख्य, प्रधान मोहनीय है जिसका सामर्थ्य दूसरोंकी अपेक्षा अत्यन्त है, और उसकी स्थिति भी सबकी अपेक्षा अधिक है। ६४. आठ कर्मोंमें चार कर्म घनघाती हैं । उन चारमें भी मोहनीय अत्यन्त प्रबलतासे घनघाती है । मोहनीयकर्मके सिवाय सात कर्म हैं, वे मोहनीयकर्मके प्रतापसे प्रबल होते हैं। यदि मोहनीय दूर हो जाये तो दूसरे कर्म निर्वल हो जाते हैं । मोहनोय दूर होनेसे दूसरोंका पैर टिक नहीं सकता। ६५. कर्मबंधके चार प्रकार हैं-प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और रसबंध। उनमें प्रदेश, स्थिति और रस इन तीन बंधोंके जोड़का नाम प्रकृति रखा गया है। आत्माके प्रदेशोंके साथ पुद्गलका जमाव अर्थात् जोड़ प्रदेशबंध होता है । वहाँ उसकी प्रबलता नहीं होती; उसे जीव हटाना चाहे तो हट सकता है । मोहके कारण स्थिति और रसका बंध होता है, और उस स्थिति तथा रसका जो बंध है, उसे जीव बदलना चाहे तो उसका बदल सकना अशक्य ही है। मोहके कारण इस स्थिति और रसकी ऐसी प्रबलता है। ६६. सम्यक्त्व अन्योक्तिसे अपना दूषण बताता है :-'मुझे ग्रहण करनेसे यदि ग्रहण करनेवालेकी इच्छा न हो तो भी मुझे उसे बरबस मोक्ष ले जाना पड़ता है। इसलिये मुझे ग्रहण करनेसे पहले यह विचार करे कि मोक्ष जानेकी इच्छा बदलनी होगी तो भी वह कुछ काम आनेवाली नहीं है। क्योंकि मुझे ग्रहण करनेके बाद नौवें समयमें तो मुझे उसे मोक्षमें पहुंचाना ही चाहिये। ग्रहण करनेवाला कदाचित् शिथिल हो जाये तो भी हो सके तो उसी मनमें और नहीं तो अधिकसे अधिक पंद्रह भवोंसे मुझे उसे मोक्षमें पहुँचाना चाहिये। कदाचित् वह मुझे छोड़कर मुझसे विरुद्ध आचरण करे, अथवा प्रबलसे प्रवल मोहको धारण करे, तो भी अर्धपुद्गलपरावर्तनके भीतर मुझे उसे मोक्षमें पहुँचान हो है यह मेरी प्रतिज्ञा है !' अर्थात् यहाँ सम्यक्त्वकी महत्ता बतायी है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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