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________________ व्याख्यानसार-१ ७५५ : शंका न करे; और इस प्रकार निर्णय हो जानेके बाद प्रायः शंका नहीं होती। यदि कदाचित् शंका हो तो वह देशशंका होती है, और उसका समाधान हो सकता है । परन्तु मूलमें अर्थात् जीवसे लेकर मोक्ष तक अथवा उसके उपायमें शंका हो तो वह देशशंका नहीं अपितु सर्वशंका है; और उस शंकासे प्रायः पतन होता है; और वह पतन इतने अधिक जोरसे होता है कि उसकी मार अत्यंत लगती है । ५२. यह श्रद्धा दो प्रकारसे है - एक 'ओघसे' और दूसरी 'विचारपूर्वक' । ८ ५३. मतिज्ञान और श्रुतज्ञानसे जो कुछ जाना जा सकता है उसमें अनुमान साथमें रहता है; परंतु उससे आगे, और अनुमानके बिना शुद्धरूपसे जानना यह मनः पर्यायज्ञानका विषय है। अर्थात् मूलमें तो मति, श्रुत और मनःपर्यायज्ञान एक है, परन्तु मनःपर्याय में अनुमान के बिना मतिकी निर्मलतांसे शुद्ध जाना जा सकता है । ५४. मतिकी निर्मलता संयम के बिना नहीं हो सकती । वृत्तिके निरोधसे संयम होता है, और उस संयमसे मतिकी शुद्धता होकर अनुमान के बिना शुद्ध पर्यायको जो जानना हो वह मनः पर्याय ज्ञान है । ५५. मतिज्ञान लिंग अर्थात् चिह्नसे जाना जा सकता है; और मनःपर्याय ज्ञानमें लिंग अथवा चिह्नकी जरूरत नहीं रहती । ५६. मतिज्ञानसे जाननेमें अनुमानकी आवश्यकता रहती है, और उस अनुमानसे जाने हुए में परिवर्तन भी होता है । जब कि मनःपर्यायज्ञानमें वैसा परिवर्तन नहीं होता, क्योंकि उसमें अनुमानकी सहायता की आवश्यकता नहीं है । शरीर की चेष्टासे क्रोध आदि परखे जा सकते हैं, परन्तु उनके ( क्रोध आदिके ) मूलस्वरूपको न दिखानेके लिये शरोरको विपरीत चेष्टा की गयी हो तो उस परसे परख सकनापरीक्षा करना दुष्कर है। तथा शरीरकी चेष्टा किसी भी आकारमें न की गयी हो फिर भी चेष्टाको विलकुल देखे बिना उनका ( क्रोध आदिका ) जानना अति दुष्कर है, फिर भी उन्हें साक्षात् जान सकना मनःपर्यायज्ञान है । ५७. लोगोंमें ओघसंज्ञासे यह माना जाता था कि 'हमें सम्यक्त्व है या नहीं इसे केवली ही जानते है, निश्चय सम्यक्त्व है यह बात तो केवलीगम्य है ।' प्रचलितः रूढिके अनुसार यह माना जाता था; परन्तु बनारसीदास और उस दशाके अन्य पुरुष ऐसा कहते हैं कि हमें सम्यक्त्व हुआ है यह निश्चयसे कहते हैं । ५८. शास्त्रमें ऐसा कहा गया है कि 'निश्चय सम्यक्त्व है या नहीं इसे केवली ही जानते है'. यह बात अमुक नयसे सत्य है; तथा केवलज्ञानीके सिवाय भी बनारसीदास आदिने सामान्यतः ऐसा कहा है कि 'हमें सम्यक्त्व है अथवा प्राप्त हुआ है', यह बात भी सत्य है, क्योंकि 'निश्चयसम्यक्त्व' है उसे प्रत्येक रहस्यके पर्यायसहित केवलो जान सकते हैं, अथवा प्रत्येक प्रयोजनभूत पदार्थ के हेतुअहेतुको सम्पूर्णतया केवलीके सिवाय दूसरा कोई नहीं जान सकता, वहाँ 'निश्चयसम्यक्त्व' को केवलीगम्य कहा है । उस प्रयोजनभूत पदार्थके सामान्यरूपसे अथवा स्थूलरूपसे हेतु अहेतुको समझ सकना सम्भव है और इस कारण से महान वनारसीदास आदिने अपनेको सम्यक्त्व है ऐसा कहा है । ५९. ‘समयसार' में महान बनारसीदासको बनायी हुई कविता में 'हमारे हृदयमें बोध चीज हुआ है', ऐसा कहा है; अर्थात् 'हमें सम्यक्त्व है' यह कहा है । ६०. सम्यक्त्व प्राप्त होनेके बाद अधिक से अधिक पंद्रह भवमें मुक्ति होती है, और यदि वहांसे वह पतित होता है तो अर्धपुद्गलपरावर्तन काल माना जाता है । अर्धपुद्गलपरावर्तनकाल माना जाये तो भी वह सादि-सांत भंगमें आ जाता है, यह वात निःशंक है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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