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________________ ७५४ গীল ভাব ४०. यदि बढ़ती हुई दशा होती हो तो उसका निषेध करनेकी जरूरत नहीं है; और न हो तो माननेकी जरूरत नहीं है। निषेध किये बिना आगे बढ़ते जाना । . . ... ४१. सामायिक, छः आठ कोटिका विवाद छोड़ देनेके बाद नव कोटिके विना नहीं होता; और अन्तमें नव कोटि वृत्तिको भी छोड़े विना मोक्ष नहीं है। ४२. ग्यारह प्रकृतियोंका क्षय किये बिना सामायिक नहीं आता। जिसे सामायिक होता है उसकी दशा तो अद्भत होती है। वहाँसे जीव छठे, सातवें और आठवें गुणस्थानकमें जाता है, और वहाँसे दो घड़ीमें मोक्ष हो सकता है। ४३. मोक्षमार्ग तलवारकी धार जैसा है, अर्थात् वह एक धारा (एक प्रवाहरूप) है। तीनों कालमें एक धारासे अर्थात् एकसा रहे वही मोक्षमार्ग है,-बहनेमें जो खंडित नहीं वही मोक्षमार्ग है। ४४. पहले दो बार कहा गया है, फिर भी यह तीसरी बार कहा जाता है कि कभी भी बादर और बाह्यक्रियाका निषेध नहीं किया गया है; क्योंकि हमारे आत्मामें वैसा भाव कभी स्वप्नमें भी उत्पन्न नहीं हो सकता। ४५. रूढिवाली गाँठ, मिथ्यात्व अथवा कषायका सूचन करनेवाली क्रियाके संबंधमें कदाचित् किसी प्रसंगपर कुछ कहा गया हो, तो वहाँ क्रियाके निषेधके लिये तो कहा ही नहीं गया हो। फिर भी कहनेसे दूसरी तरह समझमें आया हो, तो उसमें समझनेवालेकी अपनी भूल हुई है, ऐसा समझना है । . ४६. जिसने कषाय भावका छेदन किया है वह ऐसा कभी भी नहीं करता कि जिससे कषायका सेवन हो । ४७. जब तक हमारी ओरसे ऐसा नहीं कहा जाता कि अमुक क्रिया करना तब तक ऐसा समझना कि वह सकारण है; और उससे यह सिद्ध नहीं होता कि क्रिया न करना। ....... ४८. यदि अभी यह कहा जाये कि अमुक क्रिया करना और बादमें देशकालके अनुसार उस क्रियाको दूसरे प्रकारसे कहा जाये तो श्रोताके मनमें शंका लानेका कारण होता है कि एक बार इस तरह कहा जाता था, और दूसरी वारं इस तरह कहा जाता है; ऐसी शंकासे उसका श्रेय होनेके बदले अश्रेय होता है। . ४९. बारहवें गुणस्थानकके अन्तिम समय तक भी ज्ञानीकी.आज्ञाके अनुसार चलना होता है। उसमें . स्वच्छंदताका विलय होता है। . . ... ... . . . . . . . . . . . . : .. ५०. स्वच्छंदसे निवृत्ति करनेसे वृत्तियाँ शांत नहीं होती, परन्तु उन्मत्त होती हैं, और इससे पतनका समय आ जाता है; और ज्यों ज्यों आगे जानेके बाद यदि पतन होता है तो त्यों त्यों उसे मार अधिक लगती है, अतः वह अधिक नीचे जाता है; अर्थात् पहलेमें जाकर पड़ता है। इतना ही नहीं परन्तु उसे जोरकी मारके कारण वहाँ अधिक समय तक पड़े रहना पड़ता है। . ___५१. अव भी शंका करना हो तो करे; परन्तु इतनी तो निश्चयसे श्रद्धा करे कि जीवसे लेकर मोक्ष तकके पांच पद (जीव है, वह नित्य है, वह कर्मका कर्ता है, वह कर्मका भोका है; मोक्ष है ) अवश्य हैं, और मोक्षका उपाय भी है, उसमें कुछ भी असत्य नहीं है। ऐसा निर्णय करनेके बाद उसमें तो कभी भी
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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