SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 873
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद राजचन्द्र १२ : आणंद, भादों वदी १३, रवि, १९५२ संसार में जिसे मोह है, स्त्री- पुत्रमें ममत्व हो गया है; और जो कषायसे भरा हुआ है वह रात्रिभोजन न करे तो भी क्या हुआ ? जब मिथ्यात्व चला जाये तभी उसका सच्चा फल होता है । अभी जैन के जितने साधु विचरते हैं, उन सभीको समकिती न समझें । उन्हें दान देनेमें हानि नहीं हैं; परन्तु वे हमारा कल्याण नहीं कर सकते । वेश कल्याण नहीं करता । जो साधु मात्र बाह्य क्रियाएँ किया करता है उसमें ज्ञान नहीं है । ७४० ज्ञान तो वह है कि जिससे बाह्य वृत्तियाँ रुक जाती हैं, संसारपरसे सचमुच प्रीति घट जाती है, सच्चे को सच्चा जानता है । जिससे आत्मामें गुण प्रगट हो वह ज्ञान है । मनुष्यभव पाकर कमानेमें और स्त्री पुत्रमें तदाकार होकर यदि आत्मविचार नहीं किया, अपने दोष नहीं देखे, आत्माकी निन्दा नहीं की; तो वह मनुष्यभव, रत्नचिन्तामणिरूप देह व्यर्थ जाता है । जीव कुसंगसे और असद्गुरुसे अनादिकाल से भटका है; इसलिये सत्पुरुपको पहचाने । सत्पुरुष कैसे हैं ? सत्पुरुष तो वे है कि जिनका देहममत्व चला गया है, जिन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ है । ऐसे ज्ञानोपुरुषकी आज्ञा से आचरण करे तो अपने दोष घटते हैं, और कषाय आदि मन्द पड़ते हैं तथा परिणाम में सम्यक्त्व प्राप्त होता है । क्रोध, मान, माया, लोभ ये सचमुच पाप हैं। उनसे बहुत कर्मोंका उपार्जन होता है । हजार वर्ष तप किया हो परन्तु एक दो घड़ी क्रोध करे तो सारा तप निष्फल हो जाता है । 'छः खंडके भोक्ता राज छोड़कर चले गये और मैं ऐसे अल्प व्यवहार में बड़प्पन और अहङ्कार कर बैठा हूँ,' यों जीव क्यों विचार नहीं करता ? आयुके इतने वर्ष बीत गये तो भी लोभ कुछ कम न हुआ, और न ही कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ । चाहे जितनी तृष्णा हो परन्तु आयु पूरी हो जानेपर जरा भी काम नहीं आती, और तृष्णा की हो उससे कर्म ही बँधते हैं । अमुक परिग्रहकी मर्यादा की हो, जैसे कि दस हजार रुपयेकी, तो समता आती है । इतना मिलने के बाद धर्मध्यान करेंगे ऐसा विचार भी रखें तो नियममें आया जा सकता है । किसी पर क्रोध न करे। जैसे रात्रिभोजनका त्याग किया है वैसे ही क्रोध, मान, माया, लोभ, असत्य आदि छोड़नेका प्रयत्न करके उन्हें मन्द करे; और उन्हें मन्द करनेसे परिणाममें सम्यक्त्व प्राप्त होता है | विचार करे तो अनंत कर्म मंद होते हैं और विचार न करे तो अनंत कर्मोंका उपार्जन होता है । जब रोग उत्पन्न होता है तब स्त्री, बाल-बच्चे, भाई या दूसरा कोई भी उस रोगको नहीं ले सकता ! सन्तोष करके धर्मंध्यान करें; बाल-बच्चे आदि किसीकी अनावश्यक चिन्ता न करें। एक स्थानमें बैठकर, विचार कर, सत्पुरुषके संगसे, ज्ञानीके वचन सुनकर विचार कर धन आदिको मर्यादा करें । ब्रह्मचर्यको यथातथ्य रीतिसे तो कोई विरला जीव ही पाल सकता है; तो भी लोकलाजसे ब्रह्मचयंका पालन किया जाय तो वह उत्तम है । मिथ्यात्व दूर हुआ हो तो चार गति दूर हो जाती है । समकित न आया हो और ब्रह्मचर्यका पालन करे तो देवलोक मिलता है । वणिक, ब्राह्मण, पशु, पुरुष, स्त्री आदिकी कल्पनासे 'मैं वणिक, ब्राह्मण, पुरुष, स्त्री, पशु हूँ', ऐसा मानता है; परन्तु विचार करे तो वह स्वयं उनमें से कोई भी नहीं है । 'मेरा' स्वरूप तो उससे भिन्न ही है। सूर्यके उद्योतको तरह दिन बीत जाता है, उसी तरह अंजलिजल की भाँति आयु चली जाती है । F
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy