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________________ उपदेश छाया ७३९ आयेगा। समझकर करें। एकका एक ही व्रत हो परन्तु वह मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षासे बंध है और सम्यगदृष्टिकी अपेक्षासे निर्जरा है। पूर्वकालमें जो व्रत आदि निष्फल गये हैं उन्हें अब सफल करने योग्य सत्पुरुषका योग मिला है; इसलिये पुरुषार्थ करें, टेकसहित सदाचरणका सेवन करें, मरण आनेपर भी पीछे न हटें। आरम्भ, परिग्रहके कारण ज्ञानीके वचनोंका श्रवण नहीं होता, मनन नहीं होता; नहीं तो दशा बदले बिना कैसे रह सके ? आरम्भ-परिग्रहको कम करें। पढ़ने में चित्त न लगनेका कारण नीरसता है। जैसे कि मनुष्य नीरस आहार कर ले तो फिर उत्तम भोजन अच्छा नहीं लगता वैसे। . ... ज्ञानियोंने जो कहा है, उससे जीव उलटा चलता है; इसलिये सत्पुरुषको वाणी कहाँसे परिणत हो ? लोकलाज, परिग्रह आदि शल्य है। इस शल्यके कारण जीवका पुरुषार्थ जागृत नहीं होता। वह शल्य सत्पुरुषके वचनकी टाँकीसे छिदे तो पुरुषार्थ जाग्रत हो । जीवके शल्य, दोष, हजारों दिनोंके प्रयत्नसे भी स्वतः दूर नहीं होते; परन्तु सत्संगका योग एक मास तक हो तो दूर होते है; और जीव मार्गपर चला जाता है। . . कितने ही लघुकर्मी संसारी जीवोंको पुत्रपर मोह करते हुए जितना दुःख होता है उतना भी दुःख कई आधुनिक साधुओंको शिष्योंपर मोह करते हुए नहीं होता! ... तृष्णावाला जीव सदा भिखारी, संतोषवाला जीव सदा सुखी । . सच्चे देवकी, सच्चे गुरुकी और सच्चे धर्मकी पहचान होना बहुत मुश्किल है। सच्चे गुरुकी पहचान हो, उनका उपदेश हो; तो देव, सिद्ध, धर्म इन सबकी पहचान हो जाती है। सबका स्वरूप सद्गुरुमें समा जाता है। सच्चे देव अहंत, सच्चे गुरु निम्रन्थ, और सच्चे हरि, जिसके रागद्वेष और अज्ञान दूर हो गये हैं वे | ग्रन्थिरहित अर्थात् गाँठरहित.। मिथ्यात्व अन्तर्ग्रन्थि है, परिग्रह बाह्यग्रन्थि है। मूलमें अभ्यन्तर ग्रन्थिका छेदन न हो तब तक धर्मका स्वरूप समझमें नहीं आता। जिसकी ग्रन्थि दूर हो गयी है वैसा पुरुष मिले तो सचमुच काम हो जाये और फिर उसके समागममें रहे तो विशेष कल्याण हो। जिस मूल ग्रन्थिका छेदन करनेका शास्त्रमें कहा है, उसे सब भूल गये हैं; और बाहरसे तपश्चर्या करते हैं। दुःख सहन करते हुए भी मुक्ति नहीं होती, क्योंकि दुःख वेदन करनेका कारण जो वैराग्य है उसे भूल गये। दुःख अज्ञानका है। ... अन्दरसे छूटे तभी बाहरसे छूटता है; अन्दरसे छूटे विना बाहरसे नहीं छूटता। केवल बाहरसे छोड़नेसे काम नहीं होता । आत्मसाधनके बिना कल्याण नहीं होता। - जिसे बाह्य और अन्तर दोनों साधन हैं वह उत्कृष्ट पुरुप है, वह श्रेष्ठ है । जिस साधके संगसे अंतर्गुण प्रगट हो उसका संग करे । कलई और चाँदीके रुपये समान नहीं कहे जाते । कलईपर सिक्का लगा दें तो भी उसकी रुपयेकी कीमत नहीं हो जाती। जब कि चाँदीपर सिक्का न लगायें तो भी उसकी कीमत कम नहीं हो जाती । उसी तरह यदि गृहस्थावस्थामें ज्ञान प्राप्त हो, गुण प्रगट हो, समकित हो तो उसका मूल्य कम नहीं हो जाता । सब कहते हैं कि हमारे धर्मसे मोक्ष है। आत्मामें, रागद्वप दूर हो जानेपर ज्ञान प्रगट होता है। चाहे जहाँ बैठे हों और चाहे जिस स्थितिमें हों, मोक्ष हो सकता है, परन्तु रागद्वेष नष्ट हो तो। मिथ्यात्व और अहंकारका नाश हुए बिना कोई राजपाट छोड़ दे, वृक्षकी तरह सुख जाये परन्तु मोक्ष नहीं होता। मिथ्यात्व नष्ट होनेके बाद सब साधन सफल होते हैं । इसलिये सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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