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________________ उपदेश छाया . ७४१ ....... जिस तरह लकड़ी करवतसे चोरी जातो है उसी तरह आयुः चली जाती है तो भी मूर्ख परमार्थका साधन नहीं करता, और मोहके पुंज इकट्ठे करता है। 'सबकी अपेक्षा मैं जगतमें बड़ा हो जाऊँ', ऐसा बड़प्पत प्राप्त करनेको तृष्णामें पाँच इन्द्रियोंमें लवलीन, मद्यपायोको भाँति, मृगजलकी तरह संसारमें जीव भ्रमण किया.करता है; और कुल, :गांव तथा गतियोंमें मोहके नचानेसे नाचा करता है ! .....:.::.:..:.... .. जिस तरह कोई अंधा रस्सी वटता जाता है और बछड़ा उसे चबाता जाता है, उसी तरह अज्ञानी को क्रिया निष्फल जाती है। ...... : : ... ... .......... . मैं कर्ता' मैं करता हैं', 'मैं कैसा करता है, इत्यादिःजो विभांव हैं वहीं मिथ्यात्व है। अहंकारसे संसारमें अनंत दुःख प्राप्त होता है; चारों गतियोंमें भटकता है। . . . . .: किसीका दिया हुआ नहीं दिया जाता, किसीका लिया हुआ नहीं लिया जाता; "जोव व्यर्थकी कल्पना करके भटकता है। जिस तरह कर्मोंका उपार्जन किया हो उसीके अनुसार लाभ,...अलाभ, आयु, साता, असाती मिलते हैं। अपनेसे कुछ दिया लिया नहीं जाता। अहंकारसे "मैंने उसे सुख दिया', 'मैंने दुःख दिया, 'मैंने अन्नं दिया; ऐसी मिथ्या भावना करता है और उसके कारण कर्मका उपार्जन करता है । मिथ्यात्वसे कुधर्मका उपार्जन करता है।. ' . . ., : ... ................ - जगतमें इसका यह पिता, इसका यह पुत्र ऐसा कहा जाता है; परंतु कोई किसीक़ा नहीं है। पूर्वकर्मके उदयसे सब कुछ हुआ है। ... . . . . . . .: ... " अहंकारसे जो ऐसी मिथ्याबुद्धि करता है वह भूला है; चार गतिमें, भटकता है, और दुःख भोगता है। . अधमाधमा पुरुषके लक्षण :-सत्पुरुषको देखकर उसे रोष आता है, उनके सच्चे वचन सुनकर निन्दा करता है; दुर्बुद्धि सद्बुद्धिको देखकर रोष करता है। सरलको मूर्ख कहता है, विनयीको खुशामदी कहता है; पाँच इन्द्रियाँ वश करनेवालेको भाग्यहीन कहता है; सद्गुणीको देखकर रोष करता है; स्त्रीपुरुषके सुखमें लवलीन, ऐसे जीव दुर्गत्तिको प्राप्त होते हैं। जीव कमकै कारण अपने स्वल्पज्ञानसे अंध है, उसे ज्ञानका पता नहीं है। .. . .... . ..... : ... . . : i. : एक नाकके लिये-मेरी नाक रहे तो अच्छा-ऐसी कल्पनाकेः कारण. जीव अपनी शूरवीरता दिखानेके लिये लड़ाईमें उतरता है; नाककी तो राख होनेवाली है ! : ................ ...: । देह कैसी है ? रेतके घर जैसी, स्मशानकी मढ़ी जैसों। पर्वतकी गुफाकी तरह देहमें अंधेरा है। चमड़ीके कारण देह ऊपरसे रूपवती लगती है। देह अवगुणकी कोठरी, माया और मैलके रहनेका स्थान है। देहमें प्रेम रखनेसे जीव भटका है । यह देह अनित्य है। मलमूत्रकी खान है। इसमें मोह रखने से जीव चार गतिमें भटकता है। कैसा भटकता है ? कोल्हू के बैल की तरह । आँखोंपर पट्टी बांध लेता है, उसे चलनेके मार्गमें तंगीसे रहना पड़ता है; लकड़ोको मार खाता है; चारों तरफ फिरते रहना पड़ता है; छूटनेका मन होनेपर भी छूट नहीं सकता; भूखे प्यासे होनेकी बात कह नहीं सकता; सुखसे श्वासोच्छ्वास ले नहीं सकता। उसकी तरह जीव पराधीन है । जो संसारमें प्रीति करता है वह इस प्रकारके दुःख सहन करता है। . धुएँ जैसे कपड़े पहन कर वह आडंबर करता है, परंतु वह धुएंकी तरह नष्ट होने योग्य है। आत्माका ज्ञान मायासे दबा रहता है। ... . . जो जीव आत्मेच्छा रखता है वह पैसेको नाको मैल की तरह छोड़ देता है। मक्खी मिठाईमें फेंसी है उसको तरह यह अभागा जोव कुटुम्बके सुखमें फंसा है। ..
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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