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________________ ७३१ उपदेश, छाया या चौदहवें गुणस्थान तक होते हैं, मन तो कार्य किये विना वैठता ही नही है । केवलीका मन-योग चपल ता है, परन्तु आत्मा चपल नही होता । आत्मा चौथे गुणस्थानकमे 'अचपल होता है, परन्तु सर्वथा नही। 'ज्ञान' अर्थात् आत्माको यथातथ्य जानना ।' 'दर्शन' अर्थात् आत्माको यथातथ्य प्रतीति । 'चारित्र' - र्थात् आत्माका स्थिर होना। ___आत्मा और सद्गुरु एक ही समझें। यह बात विचारसे ग्रहण होती है । वह विचार' यह कि देह ही अथवा देहसम्बन्धी दूसरे भाव नही, परन्तु सद्गुरुका आत्मा ही सद्गुरु है । जिसने आत्मस्वरूपका क्षणसे, गुणसे और वेदनसे प्रगट अनुभव किया है और वही परिणाम जिसके आत्माका हुआ है वह आत्मा और सद्गुरु एक ही है, ऐसा समझें । पूर्वकालमे जो अज्ञान इकट्ठा किया है वह दूर हो तो ज्ञानीकी अपूर्व गणी समझमे आती है। मिथ्यावासना ='धर्मके मिथ्या स्वरूपको सच्चा समझना । . .. तप आदि भी ज्ञानीकी कसौटी है। साताशील वर्तन रखा हो; और असाता आये तो वह अदुखबावित ज्ञान मंद होता है । विचारके बिना इद्रियाँ वश होनेवाली नही है । अविचारसे इद्रियाँ दौडती है। नवृत्तिके लिये उपवास बताया है । आजकल' कितने ही अज्ञानी जीव उपवास करके दुकान पर बैठते है, और उसे पौषध ठहराते है। ऐसे कल्पित पौषध जीवने अनादिकालसे किये है। उन सबको ज्ञानियोने निष्फल हराया है। स्त्री, घर, बाल-बच्चे भूल जायें तब सामायिक की ऐसा कहा जाता है।। सामान्य विचारको रेकर, इन्द्रियां वश करनेके लिये छ कायका आरंभ कायासे न करते हुए वृत्ति निर्मल हो तब सामायिक हो सकती है। व्यवहार सामायिक बहुत निषिद्ध करने जैसी नही है, यद्यपि जीवने व्यवहाररूप सामायिकको एकदम जड बना डाला है। उसे करनेवाले जीवोको पता भी नहीं होता। कि इससे क्या कल्याण होगा? सम्यक्त्व पहले चाहिये। जिसके वचन सुननेसे आत्मा स्थिर हो, वृत्ति निर्मल हो, उस सत्पुरुपके वचनोका यवण हो तो फिर सम्यक्त्व होता है। , ' '.. Fire : __. भवस्थिति, पचमकालमे मोक्षका अभाव आदि शकाओसे जीवने बाह्य वृत्ति कर डाली है, परन्तु यदि ऐसे जीव पुरुषार्थ करें, और पचमकाल मोक्ष होते हुए हाथ पकड़ने आये तव, उसका उपाय हम कर लेंगे। वह उपाय कोई हाथी नही है, झलझलाती अग्नि नही है। व्यर्थ ही जीवको भडका दिया है। ज्ञानीके वचन सुनकर याद रखने नही, जीवको पुरुषार्थ करना नही, और उसे लेकर बहाने बनाने हैं । इसे अपना दोष समझें। समताकी, वैराग्यकी बातें सुने और विचार करें। वाह्य बातें यथासंभव छोड दें। जीव तरनेका अभिलाषी हो, और सद्गुरुकी आज्ञासे वर्तन करे तो सभी वासनाएँ चली जाती है। सद्गरुकी आज्ञामे सभी साधन समा गये हैं। जो जीव तरनेका कामी होता है उसकी सभी वासनाओका नाश हो जाता है। जैसे कोई सौ पचास. कोस दूर हो, तो दो चार दिनमे भी घर पहुंच जाये, परतु लाखों कोस दूर हो तो एकदम घर कहाँसे पहुँचे? वैसे ही यह जीव कल्याण मागसे थोडा दूर हो तो तो किसो दिन कल्याण प्राप्त करे, परतु यदि एकदम उलटे रास्तेपर हो तो कहांसे पार पाये? दे आदिका अभाव होना, मूछ का नाश होना यही मुक्ति है। जिसका एक भव वाकी रहा हो उसे देहकी इतनो अधिक चिंता नही करनी चाहिये । अज्ञान जाने के बाद एक भवका कुछ महत्त्व नहीं । लाखो भव चले गये तो फिर एक भव किस हिसाबमे ? . हो तो मिथ्यात्व, और माने छठा या सातवाँ गुणस्थान तो उनका क्या करना ? चौथे गुणस्थानकी स्थिति कैसी होती है ? गणधर जैसी, मोक्षमार्गकी परम प्रतीति आये ऐसी। जो तरनेका कामी हो वह सिर काटकर देते हुए पीछे नही हटता । जो शिथिल हो वह तनिक पेर धोने जैसा कलक्षण हो उसे भी छोड़ नहीं सकता, और वीतरागकी बात गण करने जाता है। वीतराग जिस वचनको कहते हुए डरे हैं उसे अज्ञानी स्वच्छदसे कहता है, तो वह कैसे छूटेगा?
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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