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________________ ७३२ श्रीमद राजचन्द्र ' महावीरस्वामीकी दीक्षाके जुलूसकी बातके स्वरूपका यदि विचार करे तो वैराग्य हो जाये । यह वात अद्भुत है । वे भगवान अप्रमादी थे। उनमें चारित्र. विद्यमान था, परंतु जब बाह्य चारित्र लिया तब मोक्ष गये। ..... अविरति शिष्य हो तो उसकी आवभगत कैसे की जाये ? रागद्वेषको मारनेके लिये निकला, और उसे तो काममें लिया, तब रागद्वेप कहाँसे जाये ? जिनेन्द्रके आगमका जो समागम हुआ हो, वह तो अपने क्षयोपशमके अनुसार हुआ. हो परन्तु सद्गुरुके योगके अनुसार.न हुआ. हो। सद्गुरुका योग मिलनेपर उनकी आज्ञाके अनुसार जो चला उसका सचमुच रागद्वेष गया। . गंभीर रोग मिटानेके लिये असली दवा तुरत फल देती है ! बुखार तो एक दो दिनमें भी मिट जायें। मार्ग और उन्मार्गकी पहचान होनी चाहिये । 'तरनेका कामी' इस शब्दका प्रयोग करें तो इसमें अभव्यका प्रश्न नहीं उठता । कामी कामी में भी भेद है.......................... प्रश्न-सत्पुरुषकी पहचान कैसे हो?:::.:......: - उत्तर-सत्पुरुष अपने लक्षणोंसे पहचाने.जाते हैं। सत्पुरुषोंके लक्षण :-उनकी वाणीमें पूर्वापर अविरोध होता है, वे क्रोधका जो उपाय बताते हैं उससे क्रोध चला. जाता है। मानका जो उपाय बताते हैं उससे मान दूर हो जाता है। ज्ञानीकी वाणी परमार्थरूप ही होती है; वह अपूर्व है । ज्ञानीकी वाणी दूसरे अज्ञानीकी वाणीसे ऊँची और ऊंची ही होती हैं । जब तक:ज्ञानीको वाणी सुनी नहीं, तब तक सूत्र ना नीरस लगते हैं। सद्गुरु और असद्गुरुकी पहचान, सोने और पीतलकी कंठीकी पहचानकी भाँति होनी. चाहिये । तरनेका कामी हो, और सद्गुरु मिल जाये, तो कर्म:दूर हो जाते हैं। सद्गुरु कर्म दूर करनेका कारण है। कर्म बाँधनेके कारण मिले तो कर्म बंधे जाते हैं और कर्म दूर करनेके कारण मिले तो कर्म दूर होते हैं । तरनेका कामी हो वह भवस्थिति आदिके आलंबनोंको मिथ्या कहता है । तरनेका कामी किसे कहा जाये ? जिस पदार्थको ज्ञानी जहर कहते हैं उसे. जहर समझकर छोड़ दे, और ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करे उसे तरनेका कामी कहा जाये।. .. .. ... ...... ..... ... . . .. . : उपदेश सुननेके लिये सुननेके कामीने कर्मरूपी गुदड़ी ओढ़ी है, इसलिये उपदेशरूपो लकड़ी नहीं. लगती। जो तरनेका कामी हो उसने धोतीरूप कर्म ओढ़े हैं इसलिये उपदेशरूप लकड़ी पहले लगती है। शास्त्रमें अभव्यके तारनेसे तरे ऐसा नहीं कहा है । चौभंगीमें ऐसा अर्थ नहीं है । ढूंढियाके धरमशी नामके मुनिने इसकी टीका की है। स्वयं तरा नहीं और दूसरोंको तारता है, इसका अर्थ अंधा मार्ग बतावे ऐसा है। असद्गुरु ऐसे मिथ्या आलंबन देते हैं। : ., . . : ..... .. .. .. , 'ज्ञानापेक्षासे सर्वव्यापक, सच्चिदानंद ऐसा मैं आत्मा एक हूँ', ऐसा विचार करना, ध्यान करना । निर्मल, अत्यंत निर्मल, परमशुद्ध, चैतन्यधन, प्रगट आत्मस्वरूप है। सबको कम करते-करते जो अबाध्य अनुभव रहता है वह 'आत्मा' है । जो सबको जानता है वह 'आत्मा' है। जो सब भावोंको प्रकाशित करता है वह 'आत्मा' है । उपयोगमय 'आत्मा' है.। अव्यावाध समाधिस्वरूप. 'आत्मा' है.। .. , 'आत्मा है।' आत्मा अत्यंत प्रगट है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रगट अनुभवमें है । अनुत्पन्न और अमिलन स्वरूप होनेसे 'आत्मा नित्य है। भ्रांतिरूपसे 'परभावका कर्ता है । उसके 'फलका भोक्ता है'। भान होनेपर 'स्वभाव परिणामी है' । सर्वथा स्वभाव परिणाम 'मोक्ष है । सद्गुरु, सत्संग, सत्शास्त्र, सद्विचार और संयम आदि उसके साधन हैं। आत्माके अस्तित्वसे लेकर निवणि तंकके पद सच्चे है, अत्यंत सच्चे हैं। क्योंकि प्रगट अनुभवमें आते हैं। भ्रांतिरूपसे आत्मा परभावका कर्ता होनेसे शुभाशुभ कर्मको उत्पत्ति होती है। कर्म सफल होनेसे उस शुभाशुभ कर्मको आत्मा भोगता है । इसलिये उत्कृष्ट शुभसे उत्कृष्ट अशुभ तकके न्यूनाधिक पर्याय भोगनेरूप क्षेत्र अवश्य है। .........
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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