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________________ उपदेश छाया ७२९ उसीको, आत्माको ही भूल गये है । जैसे बारात चढी हो और विविध वैभव आदि हो, परन्तु यदि एक वर न हो तो बारात शोभित नहीं होती और वर हो तो शोभित होती है, उसी तरह क्रिया, वैराग्य आदि यदि आत्माका ज्ञान हो तो शोभा. देते है, नहीं तो शोभा नही देते । - जैनोमे, अभी, आत्मा भूला दिया गया है। - . : ., . सूत्र, चौदहपूर्वका ज्ञान, मुनिपन, श्रावकपन, हजारो तरहके सदाचरण, तपश्चर्या आदि जो जो साधन, जो जो परिश्रम, जो जो पुरुषार्थ कहे हैं वे सब एक आत्माको पहचानने के लिये, खोज निकालनेके लिये कहे हैं। वे प्रयत्न यदि आत्माको पहचाननेके लिये, खोज निकालनेके लिये, आत्माके लिये हो तो सफल हैं; नही तो निष्फल हैं। यद्यपि उनसे बाह्य- फल होता है, परन्तु चार गतिका नाश नही होता। जीवको सत्पुरुषका योग मिले, और लक्ष्य हो तो वह सहजमे ही योग्य जीव होता है, और फिर सद्गुरुकी आस्था हो तो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है ।।। (१),शम = क्रोध आदिको कृश करना। .. - । (२) सवेग = मोक्षमार्गके सिवाय और किसी इच्छाका न होना। . । (३) निर्वेद-ससारसे थक जाना, संसारसे रुक जाना । ..... ... . (४) आस्था - सच्चे गुरुकी, सद्गुरुकी आस्था होना । . ' : , (५) अनुकंपा = सब प्राणियोपर समभाव रखना, निर्वैर बुद्धि रखना। ये गुण समकिती जीवसे- सहज होते है। पहले सच्चे पुरुषको पहचान हो तो फिर ये चार गुण आते हैं। वेदातमे विचार करनेके लिये षट्सपत्ति बतायी है । विवेक, वैराग्य आदि सद्गुण प्राप्त होने के बाद जीव योग्य मुमुक्षु कहा जाता है। ,' नय आत्माको, समझनेके लिये कहे हैं, परन्तु जीव तो नयवादमे उलझ जाते है । आत्माको समझाने जाते हुए नयमे उलझ-जानेसे यह प्रयोग उलटा पडा। समकितदृष्टि जीवको केवलज्ञान' कहा जाता है। वर्तमानमे भान हुआ है, इसलिये 'देश केवलज्ञान': हुआ कहा जाता है, बाकी तो आत्माका भान होना ही केवलज्ञान है । यह इस तरह कहा जाता है-समकितदृष्टिको आत्माका भान हुआ, तव उसे केवलज्ञानका भान प्रगट हुआ, और उसका भान प्रगट हुआ तो केवलज्ञान अवश्य होनेवाला है। इसलिये इस अपेक्षासे समकितदृष्टिको केवलज्ञान कहा है। सम्यक्त्व, हुआ अर्थात् जमीन जोत कर वीजको बो दिया, वृक्ष हुआ, फल थोडे खाये, खाते खाते आयु पूरी हुई, तो फिर दूसरे भवमे फल खाये जायेंगे | इसलिये 'केवलज्ञान' इस कालमे नही है, नही है ऐसा उलटा न मानना और न कहना । सम्यक्त्व प्राप्त होनेसे अनत भव दूर होकर एक भव बाकी रहा, इसलिये सम्यक्त्व उत्कृष्ट हे।, आत्मामे केवलज्ञान है, परन्तु आवरण दूर होनेपर केवलज्ञान प्रगट होता है। इस कालमे सम्पूर्ण आवरण दूर नहीं होता, एक भव वाकी रह जाता है, अर्थात् जितना केवलज्ञानावरणीय दूर होता है उतना केवलज्ञान होता है। समकित आनेपर भीतरमेअतरमे-दशा बदलती है, केवलज्ञानका बीज प्रगट होता है। मद्गुरुके विना मार्ग नहीं है ऐसा महापुरुषोने कहा है । यह उपदेश बिना कारण नहीं किया। . समकिती अर्थात् मिथ्यात्वमुक्त, केवलज्ञानी अर्थात् चारिमावरणसे संपूर्णतया मुक्त, और सिद्ध अर्थात् देह आदिसे सपूर्णतया मुक्त । प्रश्न-कर्म कैसे कम होते हैं ? उत्तर-क्रोध न करे, मान न करे, माया न करे, लोभ न करे, उससे कर्म कम होते हैं । वाद्य क्रिया करूँगा तो मनुष्यजन्म मिलेगा, और किसी दिन सच्चे पुरुषका योग मिलेगा।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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