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________________ ७२८ श्रीमद् राजचन्द्र जिसे देहकी मूर्छा हो उसे कल्याण किस तरह भासे ? साँप काटे और भय न हो तब समझना कि आत्मज्ञान प्रगट हुआ है । आत्मा अजर अमर है । 'मैं' मरनेवाला नही, तो मरनेका भय क्या ? जिसकी देहकी मूर्छा चली गयी है उसे आत्मज्ञान हुआ कहा जाता है। प्रश्न-जीव कैसे वर्तन करे? उत्तर-ऐसे वर्तन करे कि सत्सगके योगसे आत्माकी शुद्धता प्राप्त, हो। परन्तु सत्संगका योग सदा नहीं मिलता। जीव योग्य होनेके लिये हिंसा न करे, सत्य बोले, अदत्त न ले, ब्रह्मचर्य पाले, परिग्रहकी मर्यादा करे, रात्रिभोजन न करे इत्यादि सदाचरण शुद्ध अत करणसे करनेका ज्ञानियोने कहा है, वह भी यदि आत्माके लिये ध्यान रखकर किया जाता हो तो उपकारी है, नही तो पुण्ययोग प्राप्त होता है। उससे मनुष्यभव मिलता है, देवगति मिलती है, राज्य मिलता है, एक भवका सुख मिलता है, और फिर चार गतिमे भटकना होता है; इसलिये ज्ञानियोने तप आदि जो क्रियाएँ आत्माके उपकारके लिये अहकाररहित भावसे करनेके लिये कही है, उनका परमज्ञानी स्वय भी जगतके उपकारके लिये निश्चयसे सेवन करते हैं। , महावीरस्वामीने केवलज्ञान उत्पन्न होनेके बाद उपवास नही किये, उसी तरह किसी ज्ञानीने भी नही किये, तथापि लोगोके मनमे ऐसा न आये कि ज्ञान होनेके बाद खाना पीना सब एकसा है इसलिये अंतिम समयमे तपकी आवश्यकता बतानेके लिये उपवास किये, दानको सिद्ध करनेके लिये दीक्षा लेनेसे पहले स्वय वर्षीदान दिया, इससे जगतको दान सिद्ध कर दिखाया। मातापिताको सेवा सिद्ध कर दिखायो। छोटी उमरमे दीक्षा नही ली वह उपकारके लियें । नही तो अपनेको करना, न करना कुछ नहीं है, क्योकि जो साधन कहे हैं वे आत्मलक्ष्य करनेके लिये है, जो स्वयंको तो सपूर्ण प्राप्त हुआ है । परन्तु परोपकारक लिये ज्ञानी सदाचरणका सेवन करते है। , , . अभी जैनधर्ममे बहुत समयसे अव्यवहृत कुएँकी भॉति आवरण आ गया है, कोई ज्ञानीपुरुष है नही । कितने ही समयसे ज्ञानी हए नही, क्योकि, नहीं तो उसमे इतने अधिक कदाग्रह न होते । इस पचम कालमे सत्पुरुषका योग मिलना दुर्लभ है; उसमे अभी तो विशेष दुर्लभ देखनेमे आता है, प्राय. पूर्वके संस्कारी जीव देखनेमे नही आते। बहुतसे जीवोमे कोई ही सच्चा मुमुक्षु, जिज्ञासु देखनेमे आता है, बाकी तो तीन प्रकारके जीव देखनेमे आते हैं, जो बाह्यदृष्टिवाले है (१) "क्रिया नही करना, क्रियासे देवगति प्राप्त होती है, दूसरा कुछ प्राप्त नहीं होता। जिससे चार गतियोका भटकना मिटे, यह यथार्थ है।' ऐसा कहकर सदाचरणको पुण्यका हेतु मानकर नही करते, और पापके कारणोका सेवन करते हुए नही रुकते। इस प्रकारके जीवोको कुछ करना हो नही है, और केवल बडी बडी बाते ही करनी है । इन जीवोको 'अज्ञानवादी' के तौरपर रखा जा सकता है। .. '' (२) 'एकात किया करनी, उसीसे कल्याण होगा', ऐसा माननेवाले एकदम व्यवहारमे कल्याण मानकर कदाग्रह नही छोडते । ऐसे जीवोको ‘क्रियावादी' अथवा 'क्रियाजड समझे। क्रियाजडको आत्माका लक्ष्य नही होता। ' (३) 'हमे आत्मज्ञान है । आत्माको भ्राति होती ही नही,'आत्मा कर्ता भी नही है और भोक्ता भी नही है, इसलिये कुछ नही है ।' ऐसा बोलनेवाले 'शुष्क-अध्यात्मी पोले ज्ञानी होकर अनाचारका सेवन करते हुए नही रुकते।. ___ ऐसे तीन प्रकारके जीव अभी देखनेमे आते हैं। जीवको जो कुछ करना है वह आत्माके उपकारके लिये करना है, इस बातको वे भूल गये हैं। आजकलं जैनमे चौरासीसे सौ गच्छ हो गये हैं। उन सबमे कदाग्रह हो गये हैं, फिर भी वे सब कहते है कि 'जैनधर्ममे हम ही हैं, जैनधर्म हमारा है।' _ 'पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि' आदि पाठका लोकमे अभी ऐसा अर्थ प्रचलित हुआ मालूम होता है कि 'आत्माका व्युत्सर्जन करता हूँ,' अर्थात् जिसका अर्थ आत्माका उपकार करना है,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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