SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 858
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश छाया ७२५ प्र० - सम्यक्त्व कैसे ज्ञात हो ? उ०- अन्दरसे दशा बदले तब सम्यक्त्वका ज्ञान अपने आप स्वयको हो जाता है । सदेव अर्थात् रागद्वेष और अज्ञान जिसके क्षीण हुए है वह । सद्गुरु किसे कहा जाता हैं ? मिथ्यात्व की ग्रथि जिसकी छिन्न हो गयी है उसे । सद्गुरु अर्थात् निर्ग्रथ । सद्धर्म अर्थात् ज्ञानीपुरुषो द्वारा बोधित धर्म । इन तीन तत्त्वोको यथार्थरूपसे जाने तब सम्यक्त्व हुआ समझा जाता है । 57 • अज्ञान दूर करनेके लिये कारण, साधन बताये है। ज्ञानका स्वरूप जब जाने तव मोक्ष होता है । परम वैद्यरूपी सद्गुरु मिले और उपदेशरूपी दवा आत्मामे- परिणमित हो तब रोग दूर होता है । परन्तु उस दवाको अन्तरमे ग्रहण न करे, तो उसका रोग कभी दूर नही होता । जीव वास्तविक, साधन नही करता । जिस तरह सारे कुटुम्बको पहचानना हो तो पहले एक व्यक्तिको पहचाने तो सबकी पहचान हो जाती है, उसी तरह पहले सम्यक्त्वकी पहचान हो तब आत्माके समस्त गुणरूपी परिवारकी पहचान हो जाती है । सम्यक्त्वको सर्वोत्कृष्ट साधन कहा है । बाह्य वृत्तियोको कम करके अन्तर्परिणाम करे तो सम्यक्त्वका मार्ग मिलता है । चलते चलते गाँव आता है, परन्तु बिना चले यथार्थ सत्पुरुषकी प्राप्ति और प्रतीति नही हुई है। 1 गाँव नही आता । जीवको मन 3 बहिरात्मामेसे अन्तरात्मा होनेके बाद परमात्मत्व प्राप्त होना चाहिये। जैसे दूध और पानी अलग हैं वैसे सत्पुरुष आश्रयसे, प्रतीतिसे देह और आत्मा अलग है. ऐसा भान होता है । अन्तरमे अपने आत्मानुभवरूपसे, जैसे, दूध और पानी भिन्न भिन्न होते है, वैसे ही देह और आत्मा भिन्न भिन्न लगते है तब परमात्मत्व प्रगट होता है। जिसे आत्माका विचाररूपी ध्यान है, सतत निरन्तर ध्यान है, आत्मा, जिसे स्वप्नमे भी अलग ही भासता है, कभी जिसे आत्मा की भ्राति होती ही नही उसीको परमात्मत्व होता है । अन्तरात्मा, कषाय आदि दूर करनेके लिये निरन्तर पुरुषार्थ करता है । चौदहवे गुणस्थान तक यह विचाररूपी क्रिया है । जिसे वैराग्य उपशम रहता हो उसीको विचारवान कहते है । आत्मा मुक्क होनेके बाद ससारमे नही आता । आत्मा स्वानुभवगोचर है, 'वह चक्षुसे दीखता नही है, इन्द्रियसे रहित ज्ञान उसे जानता है । आत्माका उपयोग मनन करे वह मन है । लगाव है इसलिये मन भिन्न कहा जाता है । सकल्प-विकल्प छोड़ देना 'उपयोग' है । ज्ञानको आवरण करनेवाला निकाचित कर्म जिसने न वांधा हो उसे सत्पुरुषका बोध लगता है । आयुका बन्ध हो, उसे रोका नही जाता । जीवने अज्ञानको ग्रहण किया है इसलिये उपदेश नही लगता । क्योकि आवरणके कारण उपदेश लगने का कोई रास्ता नही हैं। जब तक लोकके अभिनिवेशकी कल्पना करते रहे तब तक आत्मा ऊँचा नही उठता, और तब तक कल्याण भी नही होता । बहुतसे जीव सत्पुरुषका बोध सुनते हैं, परन्तु उसे विचारनेका योग नहीं बनता । " 1 1 इंद्रियोके निग्रहका न होना, कुलधर्मका आग्रह, मानश्लाघा की कामना, और अमध्यस्थता, यह कदाग्रह है । इस कदाग्रहको जीव जब तक नही छोड़ता तब तक कल्याण नही होता । नव पूर्व पढे तो भी जीव भटका । चौदह राजलोक जाने परन्तु देहमे रहे हुए आत्माको नही पहचाना, इसलिये भटका । ज्ञानी पुरुष सभी शकाएँ दूर कर सकते हैं, परन्तु तरनेका कारण है सत्पुरुषको दृष्टिसे चलना और तभी दु.ख मिटता है । आज भी पुरुपार्थ करे तो आत्मज्ञान होता है । जिसे आत्मज्ञान नही है उससे कल्याण नही होता । व्यवहार जिसका परमार्थ है ऐसे आत्मज्ञानीकी आज्ञासे वर्तन करनेपर आत्मा लक्ष्यगत होता है, कल्याण होता है । जीवको बघ कैसे पड़ता है ? निकाचित सवधी - उपयोगसे, अनुपयोगसे ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy