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________________ ७२४ श्रीमद् राजचन्द्र कदाग्रह पकड़ रखा है, परन्तु वैसे कदाग्रहमे कुछ भी हित नही है। शौर्य करके आग्रह, कदाग्रहसे दूर रहे, परन्तु विरोध न करे। जब ज्ञानीपुरुष होते है तव मतभेद एव कदाग्रह कम कर देते हैं। ज्ञानी अनुकपाके लिये मार्गका वोध देते हैं । अज्ञानी कुगुरु जगह जगह मतभेद बढ़ाकर कदाग्रहको दृढ करते है। सच्चे पुरुप मिलें, और वे जो कल्याणका मार्ग बतायें, उसीके अनुसार जीव वर्तन करे तो अवश्य कल्याण होता है। सत्पुरुपको आज्ञाका पालन करना ही कल्याण है । मार्ग विचारवानको पूछे । सत्पुरुषके आश्रयसे सदाचरण करें। खोटी बुद्धि सभीको हैरान करनेवाली है, पापकारी है। जहाँ ममत्व हो वही मिथ्यात्व है। श्रावक सव दयालु होते है । कल्याणका मार्ग एक ही होता है, सौ दो सौ नही होते । अंदरके दोपोका नाश होगा, और समपरिणाम आयेगा तो ही कल्याण होगा। - जो मतभेदका छेदन करे वही सच्चा पुरुप है । जो समपरिणामके रास्तेपर चढाये वह सच्चा सग है। विचारवानको मार्गका भेद नही है। हिंदु और मुसलमान सरीखे नही है । हिंदुओके धर्मगुरु जो धर्मबोध कह गये थे उसे बहुत उपकार के लिये कह गये थे। वैसा बोध पीराना मुसलमानोके शास्त्रोमे नही है। आत्मापेक्षासे कुनबी, बनिया, मुसलमान कोई नही है। वह भेद जिसका दूर हो गया है। वही शुद्ध है, भेद भासना ही अनादि भूल है। कुलाचारके अनुसार जिसे सच्चा माना वही कषाय है । . प्र.-मोक्ष क्या है ? . . ,' . उ०-आत्माकी अत्यंत शुद्धता, अज्ञानसे छूट जाना, सब कर्मोंसे मुक्त होना 'मोक्ष' है । यथातथ्य ज्ञानके प्रगट होनेपर मोक्ष होता है। जब तक भ्राति है तब तक आत्मा जगतमे ही है। अनादिकालका 'जो चेतन है उसका स्वभाव जानना अर्थात् ज्ञान है, फिर भी जीव भूल जाता है वह क्या है ? ' जाननेमे न्यूनता है, यथातथ्य ज्ञान नही है। वह न्यूनता किस तरह दूर हो ? उस ज्ञानरूपी स्वभावको भूल न जाये, उसे वारवार दृढ करे तो न्यूनता दूर होती है । ज्ञानीपुरुषके वचनोंका आलबन लेनेसे ज्ञान होता है। जो साधन है वे उपकारके हेतु है। जैसा जैसा अधिकारी वैसा वैसा उनका फल होता है । सत्पुरुषके आश्रयसे ले तो साधन उपकारके हेतु है। सत्पुरुषकी दृष्टिसे 'चलनेसे ज्ञान होता है। सत्पुरुषके वचन आत्मा परिणत होनेपर मिथ्यात्व, अन्नत, प्रमाद, अशुभयोग इत्यादि सभी दोष अनुक्रमसे शिथिल पड़ जाते है । आत्मज्ञानका विचार करनेसे दोषोका नाश होता है। सत्पुरुष पुकार पुकार कर कह गये हैं, परतु जीवको लोकमार्गमे पडे रहना हैं, और लोकोत्तर कहलवाना है, और दोष दूर क्यो नही होते यों मात्र कहते रहना है। लोकका भय छोड़कर सत्पुरुषके वचनोको आत्मामे परिणत करे, तो सब दोष दूर हो जाते है। जीव ममत्व न रखे; वडप्पन और महत्ता छोडे विना आत्मामे सम्यक्त्वका मार्ग परिणमित होना कठिन है। वर्तमानमे स्वच्छन्दसे वेदांतशास्त्र पढे जाते हैं, और इससे शुष्कता जैसा हो जाता है। पड्दर्शनमे झगडा नहीं है, परन्तु आत्माको केवल मुक्कदृष्टिसे देखते हुए तीर्थंकरने लम्बा विचार किया है। मूल लक्ष्यगत होनेसे जो जो वक्ताओ (सत्पुरुषो) ने कहा है, वह यथार्थ है, ऐसा मालूम होगा। आत्मामे कभी भी विकार उत्पन्न न हो, तथा रागद्वेपपरिणाम न हो, तभी केवलज्ञान कहा जाता है। पड्दर्शनवालोने जो विचार किये हैं उससे आत्माका उन्हे भान होता है, परन्तु तारतम्यमे भेद पडता है। मूलमे भूल नही है। परन्तु पड्दर्शनको अपनी समझसे लगाये तो कभी नही लगते अर्थात् समझमे नही आते । सत्पुरुषके आश्रयसे वे समझमे आते हैं। जिसने आत्माको असग, निष्क्रिय विचारा हो उसे भ्राति नहीं होती, सशय भी नहीं होता । फिर आत्माके अस्तित्वका भी प्रश्न नही रहता।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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