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________________ ७२६ श्रीमद् राजचन्द्र आत्माका मुख्य लक्षण उपयोग है। आत्मा तिलमात्र दूर नहीं है, बाहर देखनेसे दूर भासता है, परतु वह अनुभवगोचर है । यह नही, यह नही, यह नही, इससे भिन्न जो रहा सो वह है। जो आकाश दीखता है वह आकाश नहीं है। आकाश चक्षुसे नही दीखता । आकाशको अरूपी कहा है। आत्माका भान स्वानुभवसे होता है । आत्मा अनुभवगोचर है। अनुमान जो है वह माप है। अनुभव जो है वह अस्तित्व है। ___आत्मज्ञान सहज नही है । 'पचीकरण', 'विचारसागर' को पढकर कथन मात्र माननेसे ज्ञान नही होता । जिसे अनुभव हुआ है ऐसे अनुभवीके आश्रयसे उसे समझकर उसकी आज्ञाके अनुसार वर्तन करे तो ज्ञान होता है। समझे विना रास्ता अति विकट है। हीरा निकालनेके लिये खान खोदनेमे तो मेहनत है, परतु हीरा लेनेमे मेहनत नही है। इसी तरह आत्मा सबधी समझ आना दुष्कर है, नही तो आत्मा कुछ दूर नहीं है । भान न होनेसे दूर लगता है । जीवको कल्याण करने, न करनेका भान नही है, परन्तु अपनापन रखना है। ___ चौथे गुणस्थानमे ग्रथिभेद होता है। ग्यारहवेसे पडता है उसे 'उपशम सम्यक्त्व' कहा जाता है । लोभ चारित्रको गिरानेवाला है । चौथे गुणस्थानमे उपशम और क्षायिक दोनो होते है । उपशम अर्थात् सत्तामे आवरणका रहना । कल्याणके सच्चे कारण जीवके ख्यालमे नही है। जो शास्त्र वृत्तिको सक्षिप्त न करें, वृत्तिको संकुचित न करे अपितु उसे बढायें, ऐसे शास्त्रोमे न्याय कहाँसे होगा? व्रत देनेवाले और व्रत लेनेवाले दोनों विचार तथा उपयोग रखे | उपयोग न रखें और भार रखें तो निकाचित कर्म वाँधे । 'कम करना', परिग्रह मर्यादा करना ऐसा जिसके मनमे हो वह शिथिल कर्म बाँधे । पाप करनेपर कुछ मुक्ति नही होती। एक व्रत मात्र लेकर जो अज्ञानको निकालना चाहता है ऐसे जीवको अज्ञान कहता है कि तेरे कितने ही चारित्र मैं खा गया हूँ, तो इसमे क्या बड़ी बात है ? जो साधन बताये वे तरनेके साधन हो तो ही सच्चे साधन हैं। बाकी निष्फल , साधन है । व्यवहारमे अनत भग उठते है, तो कैसे पार आयेगा? कोई आदमी जोरसे बोले उसे कषाय कहा जाता है। कोई धोरजसे बोले तो उसे,शान्ति है ऐसा लगता है, परतु अंतर्परिणाम हो तो ही शाति कही जाती है। जिसे सोनेके लिये एक बिस्तर चाहिये वह दस घर खुले रखे तो ऐसे मनुष्यकी वृत्ति कब सकुचित होगी ? जो वृत्तिको रोके उसे पाप नहीं होता। कितने ही जीव ऐसे हैं कि जिनसे वृत्ति न रुके ऐसे कारण इकट्ठे करते हैं; इससे पाप नहीं रुकता। । १० । भाद्रपद सुदी १५, १९५२ चौदह राजूलोकको जो कामना है वह पाप है। इसलिये परिणाम देखें। चौदह राजूलोकका पता नही ऐसा कदाचित् कहे, तो भी जितना सोचा उतना तो अवश्य पाप हुआ। मुनिको तिनका भी लेनेकी छूट नहीं है। गृहस्थ इतना ले तो उतना उसे पाप है। ____ जड और आत्मा तन्मय नहीं होते। सूतकी ऑटी सूतसे कुछ भिन्न नही है, परन्तु ऑटी खोलनेमे विकटता है, यद्यपि सूत्र न घटता है और न बढता है । उसी तरह आत्मामे ऑटी पड गयी है। । ___ सत्पुरुष और सत्शास्त्र यह व्यवहार कुछ कल्पित नही है। सद्गुरु, सत्शास्त्ररूपी व्यवहारसे स्वरूप शुद्ध हो, केवल रहे, अपना स्वरूप समझे वह समकित है। सत्पुरुपका वचन सुनना दुर्लभ है, श्रद्धा करना दुर्लभ है, विचारना दुर्लभ है, तो फिर अनुभव करना दुर्लभ हो इसमे क्या नवीनता ? उपदेशज्ञान अनादिसे चला आता है, अकेली पुस्तकसे ज्ञान नही होता । पुस्तकसे ज्ञान होता हो तो पुस्तकका मोक्ष हो जाये । सद्गुरुकी आज्ञानुसार चलनेमे भूल हो जाये तो पुस्तक अवलवनभूत है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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