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________________ नही होता। उपदेश छाया ७१३ विचार न करे, तो जीव लौकिकभावमे चला जाता है, परन्तु यदि अपने दोष देखे, अपने आत्माकी निंदा करे, अहभावसे रहित होकर विचार करे, तो सत्पुरुषके आश्रयसे आत्मलक्ष्य होता है। मार्गप्राप्तिमे अनत अन्तराय हैं। उनमे फिर 'मैने यह किया', 'मैने यह कैसा सुदर किया ?' इस प्रकारका अभिमान है। 'मैने कुछ भी किया ही नही', ऐसी दृष्टि रखनेसे वह अभिमान दूर होता है। लौकिक और अलौकिक ऐसे दो भाव है । लौकिकसे ससार, और अलौकिकसे मोक्ष होता है। बाह्य इन्द्रियाँ वशमे की हो, तो सत्पुरुषके आश्रयसे अन्तर्लक्ष्य हो सकता है। इस कारणसे बाह्य इद्रियोंको वशमे करना श्रेष्ठ है । बाह्य इद्रियाँ वशमे हो, और सत्पुरुषका आश्रय न हो तो लौकिकभावमे चले जानेका सभव रहता है। _उपाय किये बिना कुछ रोग नही मिटता। इसी तरह जीवको जो लोभरूपी रोग है, उसका उपाय किये बिना वह दूर नहीं होता। ऐसे दोषको दूर करनेके लिये जीव जरा भी उपाय नहीं करता । यदि उपाय करे तो वह दोष अभी भाग जाये। कारणको खडा करें तो कार्य होता है। कारण के बिना कार्य । सच्चे उपायको जीव नही खोजता | ज्ञानीपुरुषके वचन सुनता है परन्तु प्रतीति नहीं है। 'मझे लोभ छोडना है', 'क्रोध, भान आदि छोडने है', ऐमो नोजभूत भावना हो और छोडे, तो दोष दूर होकर अनुक्रमसे 'वोजज्ञान' प्रगट होता है। प्र०-आत्मा एक है या अनेक ? उ०-यदि आत्मा एक ही हो तो पूर्वकालमे रामचन्द्रजो मुक्त हुए है, और उससे सर्वकी मुक्ति होनी चाहिये, अर्थात् एकको मुक्ति हुई हो तो सबको मुक्ति हो जाये, और फिर दूसरोको सत्शास्त्र, सद्गुरु आदि साधनोकी जरूरत नही है। प्र०-मुक्ति होनेके बाद क्या जीव एकाकार हो जाता है ? उ०-यदि मुक्त होनेके बाद जीव एकाकार हो जाता हो तो स्वानुभव आनदका अनुभव नहीं कर सकता। एक पुरुष यहाँ आकर बैठा, और वह विदेह मुक्त हो गया। उसके बाद दूसरा यहाँ आकर बैठा । वह भी मुक्त हो गया। इससे कुछ तीसरा मुक्त नही हुआ। एक आत्मा है उसका आशय ऐसा हे कि सर्व आत्मा वस्तुत' समान है, परतु स्वतत्र है, स्वानुभव करते हैं इस कारणसे आत्मा भिन्न भिन्न हैं । 'आत्मा एक है. इसलिये तुझे दूसरो कोई भ्राति रखनेकी जरूरत नहीं है, जगत कुछ है ही नहीं; ऐसे भ्रातिरहित भावसे वर्तन करनेसे मुक्ति है', ऐसा जो कहता है उसे विचार करना चाहिये कि, तो एककी मुक्तिसे सर्वको मुक्ति होनी ही चाहिये । परन्तु ऐसा नही होता, इसलिये आत्मा भिन्न भिन्न है । जगतकी भ्राति दूर हो गयी, इसका आशय यो नही समझना है कि चद्र-सूर्य आदि ऊपरसे नीचे गिर पडते हैं। आत्मविषयक भ्राति दूर हो गयी ऐसा आशय समझना है। रूढिसे कुछ कल्याण नही है । आत्मा शुद्ध विचारको प्राप्त हुए विना कल्याण नहीं होता। ____ मायाकपटसे झूठ बोलनेमे बहुत पाप है । वह पाप दो प्रकारका है। मान और धन प्राप्त करने के लिये झूठ बोले तो उसमे बहत पाप है। आजीविकाके लिये झूठ बोलना पडा हो, और पश्चात्ताप करे, तो पहलेको अपेक्षा कुछ कम पाप लगता है। सत् और लोभ इन दोनोको इकट्ठा किसलिये जोव समझता है ? वाप स्वय पचास वर्पका हो और उसका वीस वर्षका लडका मर जाये तो वह वाप उसके पास जो आभूषण होते हैं उन्हें निकाल लेता है ! पुत्रके देहातके समय जो वैराग्य था वह स्मशानवैराग्य था। भगवानने कोई भी पदार्थ दूसरेको देनेको मुनिको आज्ञा नहीं दी। देहको धर्मसावन मानकर उसे निभानेके लिये जो कुछ आज्ञा दी है वह दी है, वाको दूसरेको कुछ भी देनेकी भगवानने आज्ञा नहीं दो ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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