SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 847
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१४ श्रीमद् रामचन्द्र आज्ञा दी होती तो परिग्रह बढता, और उससे अनुक्रमसे अन्न, पानी आदि लाकर कुटुम्वका अथवा दूसरेका पोषण करके दानवीर होता। इसलिये मुनिको सोचना चाहिये कि तीर्थकरने जो कुछ रखनेकी आज्ञा दी है वह मात्र तेरे अपने लिये, और वह भी लौकिकदृष्टि छुडाकर सयममे लगानेके लिये दी है। ____ मुनि गृहस्थके यहाँसे एक सूई लाया हो, और वह खो जानेसे भी वापस न दे तो वह तीन उपवास करे ऐसी ज्ञानीपुरुषोने आज्ञा दी है, उसका कारण यह है कि वह उपयोगशून्य रहा । यदि इतना अधिक भार न रखा होता तो दूसरी वस्तुएँ लानेका मन होता, और कालक्रमसे परिग्रह बढाकर मुनित्वको खो बैठता। ज्ञानीने ऐसा कठिन मार्ग प्ररूपित किया है उसका कारण यह है कि वे जानते है कि यह जीव विश्वास करने योग्य नही है, क्योकि वह भ्रातिवाला है। यदि छूट दी होगी तो कालक्रमसे उस उस प्रकारमे विशेष प्रवृत्ति करेगा, ऐसा जानकर ज्ञानीने सूई जैसी निर्जीव वस्तुके सवधमे इस प्रकार वर्तन करनेको आज्ञा की है। लोकको दृष्टिमे तो यह बात साधारण है, परन्तु ज्ञानोकी दृष्टिमे उतनी छूट भी मूलसे गिरा दे इतनी बडी लगती है। ऋषभदेवजीके पास अट्ठानवे पुत्र हमें राज्य में ऐसा कहनेके अभिप्रायसे आये थे, वहाँ तो ऋषभदेवने उपदेश देकर अट्टानवोको ही मुंड दिया | देखिये महान पुरुषको करुणा। केशीस्वामी और गौतमस्वामी कैसे सरल थे ! दोनोका मार्ग एक प्रतीत होनेसे पॉच महाव्रत ग्रहण किये । आधुनिक कालमे दो पक्षोका एक होना सम्भव नही है । आजके दृढिया और तपा, तथा भिन्न भिन्न सघाडोका एकत्र होना नही हो सकता । उसमे कितना ही काल बीत जाता है। उसमे कुछ है नही, परन्तु असरलताके कारण सम्भव हो नही है। सत्पुरुष कुछ सदनुष्ठानका त्याग नहीं कराते, परन्तु यदि उसका आग्रह हुआ होता है तो आग्रह दूर करानेके लिये उसका एक बार त्याग कराते हैं, आग्रह मिटनेके बाद फिर उसे ही ग्रहण करनेको कहते है। ___ चक्रवर्ती राजा जैसे भी नग्न होकर चले गये है ! चक्रवर्ती राजा हो, उसने राज्यका त्याग कर दीक्षा ली हो, और उसकी कुछ भूल हो, और उस चक्रवर्तीके राज्यकालकी दासीका लडका उस भूलको सुधार सकता हो, तो उसके पास जाकर, उसके कथनको ग्रहण करनेकी आज्ञा की है। यदि उसे दासीके लडकेके पास जाते हुए यो लगे कि 'मै दासीके लड़केके पास कैसे जाऊँ ?' तो उसे भटक मरना है । ऐसे कारणोमे लोकलाजको छोडनेका कहा है, अर्थात् जहाँ आत्माको ऊँचा उठानेका कारण हो वहाँ लोकलाज नही मानी गयी है । परन्तु कोई मुनि विषयकी इच्छासे वेश्याशालामे गया, वहाँ जाकर उसे ऐसा लगा, 'मुझे लोग देख लेंगे तो मेरी निंदा होगी । इसलिये यहाँसे लौट जाऊँ ।' तात्पर्य कि मुनिने परभवके भयको नही गिना, आज्ञाभगके भयको भी नही गिना, तो ऐसो स्थितिम लोकलाजसे भी ब्रह्मचर्य रह सकता है, इसलिये वहाँ लोकलाज मानकर वापस आया, तो वहाँ लोकलाज रखनेका विधान है, क्योकि इस स्थलमे लोकलाजका भय खानेसे ब्रह्मचर्य रहता है, जो उपकारक है। हितकारी क्या है उसे समझना चाहिये। अष्टमोका झगड़ा तिथिके लिये न करे, परन्तु हरी वनस्पतिके रक्षणके लिये तिथिका पालन करें। हरी वनस्पतिके रक्षणके लिये अष्टमी आदि तिथियाँ कही गयी हैं, कुछ तिथिके लिये अष्टमी आदि नही कही। इसलिये अष्टमी आदि तिथिका कदाग्रह दूर करें। जो कुछ कहा है वह कदाग्रह करने के लिये नही कहा । आत्माकी शुद्धिसे जितना करेंगे उतना हितकारी है। अशुद्धिसे करेंगे उतना अहितकारी है, इसलिये शुद्धतापूर्वक सद्बतका सेवन करें। . हमे तो ब्राह्मण, वैष्णव चाहे जो हो सब समान हैं। जैन कहलाते हो और मतवाले हो तो वे अहितकारी हैं, मतरहित हितकारी है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy