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________________ ७१२ श्रीमद राजचन्द्र मात्र अज्ञानके कारण जीवके ध्यानमे नही आता, इसलिये विचारवान सिद्धके स्वरूपका विचार करे, जिससे अपना स्वरूप समझमे आये। __ एक आदमीके हाथमे चिंतामणि आया हो, और उसे उसकी खबर (पहचान) है तो उसके प्रति उसे अतीव प्रेम हो जाता है, परंतु जिसे खबर नही है उसे कुछ भी प्रेम नही होता। इस जीवको अनादिकालकी जो भूल है उसे दूर करना है। दूर करनेके लिये जीवको बडीसे बडी भूल क्या है ? उसका विचार करे, और उसके मूलका छेदन करनेकी ओर लक्ष्य रखे । जब तक मूल रहता है तब तक बढता है। 'मुझे किससे बधत्त होता है ?' और वह किससे दूर हो" यह जाननेके लिये शास्त्र रचे गये है। लोगोमे पूजे जानेके लिये शास्त्र नही रचे गये है। जीवका स्वरूप क्या है ? जीवका स्वरूप जब तक जाननेमे न आये.तब तक अनत जन्म मरण करने पडते है । जीवकी क्या भूल है ? वह अभी तक ध्यानमे नही आती । जोवका क्लेश नष्ट होगा तो भूल दूर होगी। जिस दिन भूल दूर होगी उसी दिनसे साधुता कही जायेगी। इसी तरह श्रावकपनके लिये समझें। कर्मकी वर्गणा जोवको दूध और पानीके सयोगकी भॉति है। अग्निके प्रयोगसे पानी जल जानेसे दूध बाकी रह जाता है, इसी तरह ज्ञानरूपो अग्निसे कर्मवर्गणा नष्ट हो जाती है। - देहमे अहभाव माना हुआ है, इसलिये जीवकी भूल दूर नही होती। जीव देहके साथ मिल जानेसे ऐसा मानता है कि 'मैं वणिक हूँ', 'ब्राह्मण हूँ', परतु शुद्ध विचारसे तो उसे ऐसा अनुभव होता है कि 'मैं शुद्ध स्वरूपमय हूँ।' आत्माका नाम-ठाम या कुछ भी नही है, इस तरह सोचे तो उसे कोई गाली आदि दे तो उससे उसे कुछ भी नहीं लगता। जीव जहाँ जहाँ ममत्व करता है वहाँ वहाँ उसको भूल है। उसे दूर करनेके लिये शास्त्र कहे हैं। चाहे कोई भी मर गया हो उसका यदि विचार करे तो वह वैराग्य है। जहाँ जहाँ 'ये मेरे भाईबधु' इत्यादि भावना है वहाँ वहाँ कर्मबधका हेतु है । इसी तरहकी भावना यदि साधु भी चेलेके प्रति रखे तो उसका आचार्यपन नष्ट हो जाता है। निर्दभता, निरहकारता करे तो आत्माका कल्याण ही होता है । , पाँच इन्द्रियाँ किस तरह वश होती है ? वस्तुओपर तुच्छभाव लानेसे । जैसे फूलमे सुगन्ध होती है उससे मन सन्तुष्ट होता है, परन्तु सुगन्ध थोडी देर रहकर नष्ट हो जाती है, और फूल मुरझा जाता है, फिर मनको कुछ भी सतोष नही होता। उसी तरह सभी पदार्थोंमे तुच्छभाव लानेसे इन्द्रियोको प्रियता नही होती, और इससे क्रमश. इद्रियाँ वश होती है। और पाँच इन्द्रियोमे भी जिह्वा इन्द्रिय वश करनेसे शेष चार इन्द्रियाँ अनायास वश हो जाती है। तुच्छ आहार करें, किसी रसवाले पदार्थमें न ललचाय, बलिष्ठ आहार न करें। एक बर्तनमें रक्त, मास, हड्डियां, चमडा, वीर्य, मल, मूत्र ये सात धातुएँ पडी हो, और उसकी ओर कोई देखनेको कहे तो उसपर अरुचि होती है, और यूँकनेके लिये भी नहीं जाता। उसी तरह स्त्रीपुरुषके शरीरको रचना है, परन्तु ऊपरकी रमणीयता देखकर जीव मोहको प्राप्त होता है और उसमे तृष्णापूर्वक प्रवृत्ति करता है । अज्ञानसे जीव भूलता है, ऐसा विचार कर, तुच्छ समझकर पदार्थपर अरुचिभाव लायें। इस तरह प्रत्येक वस्तुकी तुच्छता समझें। इस तरह समझ कर मनका तिरोध करें। . तीर्थकरने उपवास करनेकी आज्ञा दी है, वह मात्र इन्द्रियोको वश करनेके लिये । अकेला उपवास करनेसे इन्द्रियाँ वश नही होती, परन्तु उपयोग हो तो, विचारसहित हो तो वश होती हैं। जैसे बिना लक्ष्यका बाण निकम्मा जाता है, वैसे बिना उपयोगका उपवास. आत्मार्थके लिये नही होता। . अपनेमे कोई गुण प्रगट हुआ हो, और उसके लिये, यदि कोई मनुष्य अपनी स्तुति करे और उससे यदि अपना आत्मा अहकार करे तो, वह पीछे हटता है। अपने आत्माकी निंदा न करे, अभ्यतर दोषका
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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