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________________ उपदेश छाया 'पाँच इद्रियोंका अपना अपना स्वभाव है। 'चक्षका देखनेका स्वभाव है वह देखता है। कानका सुननेका स्वभाव है वह सुनता है । जोभका स्वाद, रस लेनेका स्वभाव है, वह खट्टा, खारा स्वाद लेती है। शरीर, स्पर्शेन्द्रियका स्वभाव स्पर्श करनेका है, वह स्पर्श करता है। इस तरह प्रत्येक इद्रिय अपना अपना स्वभाव किया करती है, परन्तु आत्माका उपयोग तद्रूप होकर, तादात्म्यरूप होकर उसमे हर्षविपाद न करे तो कर्मबंध नही होता । इद्रियरूप आत्मा हो तो कर्मवधका हेतु है। ‘भादो सुदी ९, १९५२ जैसा सिद्धका सामर्थ्य हे वैसा सब जीवोका है। मात्र अज्ञानसे ध्यानमे नही आता । विचारवान जीव हो उसे तो तत्सबधी नित्य विचार करना चाहिये । ___ जीव यों समझता है कि मै जो क्रिया करता हूँ उससे मोक्ष है। क्रिया करना यह अच्छी बात है, परन्तु लोकसज्ञासे करे तो उसे उसका फल नही मिलता । ' . । एक मनुष्यके हाथमे चितामणि आया हो, परतु यदि उसे उसका पता न चले तो निष्फल है, यदि पता चले तो सफल है । उसी तरह जीवको सच्चे ज्ञानोकी पहचान हो तो सफल है । जीवकी अनादिकालसे भूल चली आती है। उसे समझनेके लिये जीवकी जो भूल मिथ्यात्व है उसका मूलसे छेदन करना चाहिये । यदि मूलसे छेदन किया जाये तो वह फिर अकुरित नही होती । नही तो वह फिर अकुरित हो जाती है । जिस तरह पृथ्वीमे वृक्षका मूल रह गया हो तो वृक्ष फिर उग आता है उसी तरह । इसलिये जीवकी मूल भूल क्या है उसका पुन. पुन विचार करके उससे मुक्त होना चाहिये । 'मुझे किससे बधन होता है ?' 'वह कैसे दूर हो ?' यह विचार प्रथम कर्तव्य है। रात्रिभोजन करनेसे आलस्य, प्रमाद आता है, जागृति नही होती, विचार नहीं आता, इत्यादि अनेक प्रकारके दोष रात्रिभोजनसे उत्पन्न होते हैं, मैथुनके अतिरिक्त भी दूसरे बहुतसे दोष उत्पन्न होते है। ___ कोई हरी वनस्पति छीलता हो तो हमसे तो वह देखा नहीं जा सकता । इसी तरह कोई भी आत्मा उज्ज्वलता प्राप्त करे तो उसे अतीव अनुकंपा बुद्धि रहती है। ज्ञानमे सीधा भासता है, उलटा नही भासता। ज्ञानी मोहको पैठने नही देते। उनका जागृत उपयोग होता है। ज्ञानीके जैसे परिणाम रहते है वैसा कार्य ज्ञानोका होता है तथा अज्ञानीका जैसा परिणाम होता है, वैसा अज्ञानीका कार्य होता है। ज्ञानीका चलना सीधा, वोलना सीधा और सब कुछ ही सीधा ही होता है । अज्ञानीका सब कुछ उलटा ही होता है, वर्तनके विकल्प होते है। मोक्षका उपाय है । ओघभावसे खबर होगी, विचारभावसे प्रतीति आयेगो। अज्ञानी स्वय दरिद्री है। ज्ञानीकी आज्ञासे काम, क्रोध आदि घटते है। ज्ञानी उनके वैच है। ज्ञानीके हाथसे चारित्र प्राप्त हो तो मोक्ष हो जाता है। ज्ञानी जो जो व्रत देते हे वे सब ठेठ अत तक ले जाकर पार उतारनेवाले है । समकित आनेके बाद आत्मा समाधिको प्राप्त होगा, क्योकि वह सच्चा हो गया है। प्र०-ज्ञानमे कर्मकी निर्जरा होती है क्या ? उ०-सार जानना ज्ञान है। मार न जानना अज्ञान है। हम किसी भी पापसे निवृत्त हो अथवा कल्याणमे प्रवृत्ति करे, वह ज्ञान हे । परमार्थ समझ कर करे । अहकाररहित, कदाग्रहरहित, लोकसंज्ञारहित आत्मामे प्रवृत्ति करना 'निर्जरा' हे । इस जीवके साथ रागद्वेप लगे हुए है, जीव अनत ज्ञान-दर्शनसहित है, परतु राग-द्वेपमे वह जीवके ध्यानमे नहीं आता। सिद्धको रागद्वेप नही है । जैसा सिद्धका स्वल्प हे वैसा ही सब जीवोका स्वरूप है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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