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________________ ७१० श्रीमद् राजचन्द्र इस कारण चार वेद, अठारह पुराण आदिका जिसने वर्णन किया है, उसने अज्ञानसे, स्वच्छंदसे, मिथ्यात्वसे और सशयसे किया है, ऐसा कहा है । ये वचन बहुत ही कठोर कहे हैं, वहाँ बहुत अधिक विचार करके फिर वर्णन किया है कि अन्य दर्शन, वेद आदिके जो ग्रन्थ है उन्हे यदि सम्यग्दृष्टि जीव पढे तो वे सम्यक् प्रकारसे परिणमित होते हैं, और जिनेन्द्रके अथवा चाहे जैसे ग्रन्थोको यदि मिथ्यादृष्टि पढे तो मिथ्यात्वरूपसे परिणमित होते हैं। जीवको ज्ञानीपुरुपके समीप उनके अपूर्व वचन सुननेसे अपूर्व उल्लास परिणाम आता है, परन्तु फिर प्रमादी हो जानेसे अपूर्व उल्लास नही आता । जिस तरह अग्निकी अगीठीके पास बैठे हो तब ठंडी नही लगती, और अगीठीसे दूर चले जानेसे ठडी लगती है, उसी तरह ज्ञानी पुरुषके समीप उनके अपूर्व वचन सुननेसे प्रमाद आदि चले जाते है, और उल्लास परिणाम आता है, परन्तु फिर प्रमाद आदि उत्पन्न हो जाते है । यदि पूर्वके सस्कारसे वे वचन अंतरमे परिणत हो जाये तो दिन प्रतिदिन उल्लास परिणाम बढ़ता ही जाता है और यथार्थरूपसे भान होता है । अज्ञान मिटनेपर सारो भूल मिटती है, स्वरूप जागृतिमान होता है। बाहरसे वचन सुननेसे अतर्परिणाम नही होता, तो फिर जिस तरह अगीठीसे दूर चले जानेपर ठडी लगती है उसी तरह दोष कम नहीं होते। केशीस्वामीने परदेशी राजाको बोध देते समय 'जड जैसा', 'मूढ जैसा' कहा था, उसका कारण परदेशी राजामे पुरुषार्थ जगाना था । जडता-मूढता मिटानेके लिये उपदेश दिया था। ज्ञानीके वचन अपूर्व परमार्थके सिवाय दूसरे किसी हेतुसे नही होते । वालजीव ऐसी बातें करते है कि छद्मस्थतासे केशीस्वामी परदेशी राजाके प्रति इस प्रकार बोले थे, परन्तु यह वात नही है । उनकी वाणी परमार्थके लिये ही निकली थी । जड पदार्थके लेने-रखनेमे उन्मादसे वर्तन करे तो उसे असयम कहा है। उसका कारण यह है कि जल्दीसे लेने-रखनेमे आत्माका उपयोग चूककर तादात्म्यभाव हो जाता है । इस हेतुसे उपयोग चूक जानेको असयम कहा है। मुहपत्ती बांध कर झूठ बोले, अहकारसे आचार्यपद धारण कर दभ रखे और उपदेश दे, तो पाप लगता है, मुहपत्तीको जयणासे पाप रोका नहीं जा सकता । इसलिये आत्मवृत्ति रखनेके लिये उपयोग रखे। ज्ञानीके उपकरणको छनेसे या शरीरका स्पर्श होनेसे आशातना लगती है ऐसा मानता है, किन्तु वचनको अप्रधान करनेसे तो विशेष दोष लगता है, उसका तो भान नही है। इसलिये ज्ञानीकी किसी भी प्रकारसे आशातना न हो ऐसा उपयोग जागृत-जागृत रखकर भक्ति प्रगट हो तो वह कल्याणका मुख्य मार्ग है। श्री आचाराग सूत्रमे कहा है कि 'जो आस्रव है वे परिस्रव हैं', 'जो परिस्रव हैं वे आस्रव हैं'। जो आस्रव है वह ज्ञानोको मोक्षका हेतु होता है, और जो सवर है फिर भी वह अज्ञानीको वधका हेतु होता है, ऐसा स्पष्ट कहा है । उसका कारण ज्ञानोमे उपयोगको जागृति है, और अज्ञानीमे नही है। उपयोग दो प्रकारके कहे है-१ द्रव्य-उपयोग, २ भाव-उपयोग। द्रव्यजीव, भावजीव । द्रव्यजीव वह द्रव्य मूल पदार्थ है । भावजीव, वह आत्माका उपयोग-भाव है। भावजीव अर्थात् आत्माका उपयोग जिस पदार्थमे तादात्म्यरूपसे परिणमे तद्रूप आत्मा कहे । जैसे टोपी देखकर, उसमे भावजीवकी बुद्धि तादात्म्यरूपसे परिणमे तो टोपी-आत्मा कहे। जैसे नदीका पानी द्रव्य आत्मा है। उसमे क्षार, गधक डालें तो गधकका पानी कहा जाता है। नमक डाले तो नमकका पानी कहा जाता है। जिस पदार्थका सयोग हो उस पदार्थरूप पानी कहा जाता है। उसी तरह आत्माको जो सयोग मिले उसमे तादात्म्यभाव होनेसे वही आत्मा उस पदार्थरूप हो जाता है। उसे कर्मवधकी अनत वर्गणा बँधती हैं, और वह अनत ससारमे भटक्ता है। अपने उपयोगमे, स्वभावमे आत्मा रहे तो कर्मवध नहीं होता।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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