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________________ उपदेश छाया उस उस वृत्तिका निरोध करता है वह 'संवर' है। अनत वृत्तियाँ अनत प्रकारसे स्फुरित होती हैं, और अनत प्रकारसे जीवको बाँधती हैं । बालजी को यह समझमे नही आता, इसलिये ज्ञानियोने उनके स्थूल भेद इस तरह कहे है कि समझमे आ जायें। वृत्तियोका मूलसे क्षय नही किया इसलिये पुन पुन. स्फुरित होती हैं। प्रत्येक पदार्थके विष स्फुरायमान बाह्य वृत्तियोको रोके और उन वृत्तियो-परिणामोको अन्तर्मुख करे।। अनतकालके कर्म अनतकाल बितानेपर नहीं जाते, परन्तु पुरुषार्थसे जाते है । इसलिये कर्ममे नही है परन्तु पुरुषार्थमे बल है । इसलिये पुरुषार्थ करके आत्माको ऊँचे लानेका लक्ष्य रखें। परमार्थकी एककी एक बात सौ बार पूछे तो भी ज्ञानीको कटाला नही आता, परन्तु उन्हे अनुव आती है कि इस बेचारे जीवके आत्मामे यह बात विचारपूर्वक स्थिर हो जाये तो अच्छा है। 'क्षयोपशमके अनुसार श्रवण होता है। ' सम्यक्त्व ऐसी वस्तु है कि वह आता है तब गुप्त नही रहता। वैराग्य पाना हो तो कर्मकी हि करें । कर्मको प्रधान न करें परन्तु आत्माको मूर्धन्य रखें-प्रधान करें। ससारी काममे कर्मको याद न करें, परन्तु पुरुषार्थको आगे लायें । कर्मका विचार करते रहनेसे वह दूर होनेवाला नही है, परन्तु धक्का लगायेंगे तो जायेगा, इसलिये पुरुषार्थ करें। बाह्य क्रिया करनेसे अनादि दोष कम नही होता । बाह्य क्रियामे जीव कल्याण मानकर अभिन करता है। वाह्य व्रत अधिक लेनेसे मिथ्यात्वका नाश कर देगे, ऐसा जीव सोचे तो यह सम्भव नही, क्य जैसे एक भैंसा जो ज्वार बाजरेके हजारो पूले खा गया है वह एक तिनकेसे नही डरता वैसे मिथ्यात्वरु भंसा जो अनतानुबधी कषायसे पूलारूपी अनत चारित्र खा गया है वह तिनके रूपी वाह्य व्रतसे । डरेगा ? परन्तु जैसे भैसेको किसी बधनसे बाँध दें तो वह अधीन हो जाता है, वैसे मिथ्यात्वरूपी भैसे आत्माके वलरूपी बधनसे बाँध दे तो अधीन होता है, अर्थात् आत्माका बल बढता- है तव मिथ्य घटता है। अनादिकालके अज्ञानके कारण जितना काल बीता, उतना काल मोक्ष होनेके लिये नही चाहि क्योकि पुरुषार्थका बल कर्मोको अपेक्षा अधिक है। कई जीव दी धड़ामे कल्याण कर गये है । सम्यग्द जीव चाहे जहाँसे आत्माको ऊँचा उठाता है, अर्थात् सम्यक्त्व आनेपर जीवकी दृष्टि वदल जाती है। मिथ्यादृष्टि समकितोके अनुसार जप, तप आदि करता है, ऐसा होनेपर भी मिथ्यादृष्टिके तप आदि मोक्षके हेतुभत नही होते, ससारके हेतुभूत होते हैं। समकितोके जप, तप आदि मोक्षके हेतु होते है । समकिती दभरहित करता है, आत्माकी ही निंदा करता है, कर्म करनेके कारणोंसे पीछे हर है । ऐसा करनेसे उसके अहकार आदि सहज ही घट जाते हैं। अज्ञानीके सभी जप, तप आदि अहकार बढाते है, और ससारके हेतु होते है। जैन शास्त्रोमे कहा है कि लब्धियाँ उत्पन्न होती हैं । जैन और वेद जन्मसे ही लड़ते आये हैं, प इस बातको तो दोनो ही मान्य करते हैं, इसलिये यह सम्भव है। आत्मा साक्षी देता है तब आत्म उल्लास परिणाम आता है। होम, हवन आदि लौकिक रिवाज बहुत प्रचलित देखकर तीर्थकर भगवानने अपने कालमे दया वर्णन बहुत ही सूक्ष्म रीतिसे किया है । जैनधर्मके जैसे दया सबधी विचार कोई दर्शन अथवा सप्रदायव नही कर सके है, क्योकि जैन पचेंद्रियका घात तो नहीं करते, परन्तु उन्होंने एकेंद्रिय आदिने जो अस्तित्वको विशेष-विशेष दढ करके दयाके मार्गका वर्णन किया है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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